|| जय सिया राम ||
|| जय गौरी शंकर ||
शिव मूल मंत्र
ॐ नमः शिवाय
महामृत्युंजय मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
शिव ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की कन्या सती से विवाह किया था, लेकिन सती तो दक्ष के यज्ञ की आग में कूदकर भस्म हो गई थी। उनका तो कोई पुत्र या पुत्री नहीं थी।
सती के आत्मदाह करने के बाद सती ने अपने दूसरे जन्म में पर्वतराज हिमालय के यहां उमा के रूप में जन्म लिया यह उमा ही बाद में पार्वती के नाम से विख्यात हुईं। सती या उमा ही मां दुर्गा के रूप हैं। शिव और पार्वती के मिलन के बाद शिवजी का गृहस्थ जीवन शुरू हुआ और उनके जीवन में अनेक प्रकार की घटनाओं की शुरुआत हुई।
Shiva had married Sati, the daughter of Brahma's son Daksha, but Sati was consumed by jumping into the fire of Daksha's yajna. He had no son or daughter. After Sati's self-immolation, Sati was born as Uma in the mountain Himalayas in her second birth, this Uma was later known as Parvati. Sati or Uma are the forms of Mother Durga. After the union of Shiva and Parvati, the household life of Shivji started and many types of events started in his life.
उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे|
In those days, Shri Hari incarnated in Raghuvansh to take the weight of the earth. Those indestructible Gods were wandering in Dandakavan in the form of ascetic or monk, renouncing the kingdom by the word of the father.
Shiva had married Sati, the daughter of Brahma's son Daksha, but Sati was consumed by jumping into the fire of Daksha's yajna. He had no son or daughter. After Sati's self-immolation, Sati was born as Uma in the mountain Himalayas in her second birth, this Uma was later known as Parvati. Sati or Uma are the forms of Mother Durga. After the union of Shiva and Parvati, the household life of Shivji started and many types of events started in his life.
एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया| मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया| श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले|
Once in Treta Yuga, Shivji went to Agastya Rishi. He was accompanied by Jagjjanani Bhavani Satiji. The sage worshiped him knowing the God of the whole world. Munivar Agastya ji narrated the story of Ram, which Maheshwar heard as the ultimate happiness. Then the sage asked Shiva for beautiful devotion and Shivji, after finding him in authority (with mystery), represented devotion. Shiva lived there for a few days while listening to the stories of the qualities of Shri Raghunathji. Then Shivaji asked for leave from the sage and went to the house (Kailas) with Dakshakumari Satiji.
उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे|
In those days, Shri Hari incarnated in Raghuvansh to take the weight of the earth. Those indestructible Gods were wandering in Dandakavan in the form of ascetic or monk, renouncing the kingdom by the word of the father.
शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे| श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे| रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी| इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया| मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए| श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया|
Shivji was thinking in my heart that how should I see God. God has incarnated in secret, everyone will know by my departure. A great uproar arose in the heart of Shri Shankarji, but Satiji did not know this distinction. Tulsidasji says that Shiva had a fear in his mind (of opening up the secret), but his eyes were tempted by the greed of philosophy. Ravana asked (from Brahmaji) his death at the hands of man.God wants to make the words of Brahmaji true. If I don't go near, I will be very sorry. In this way, Shiva used to think, but none of the tactics fit. In this way, Mahadevji became worried. At the same time, Neecha Ravana went and took Marich with him and he (Marich) immediately became a treacherous antelope. The fool (Ravana) tricked and defeated Sitaji. He did not know anything of the real influence of Shri Ramchandraji. After killing the deer, Shri Hari along with brother Lakshman came to the ashram and seeing him empty (that is, not finding Sita there) filled his eyes with tears. Shri Raghunath ji is distraught as a human being, and both brothers have been searching for Sita in the forest. In those who have never had any accidental disconnection, the misery of direct disarray was seen.
श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं| श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया| जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े।
The character of Shri Raghunathji is very strange, only the learned knowledgeers know him. Those who are retarded, especially under the influence of attachment, understand something else in the heart. Shri Shivji saw Shri Ramji on the same occasion and there was great joy in his heart. Shivaji looked at the sea of beauty (Shri Ramchandraji) with an eye, but did not introduce the opportunity by not knowing the opportunity. Hail to Sachchidananda, who purifies the world, saying that Lord Shiva, who destroyed Kamdev, started walking.
कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे|| सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं| उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती| जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं।
Kripanidhan Shivji was blissfully passing away with Satiji. When Satiji saw Shankar's condition, a lot of doubt arose in his mind. (She started to say in her mind that) She praises Shankar ji's whole world, He is the God of the world, God, man, sage all give heads towards them.He greeted a Rajputra as Sachchidananda Pardham and on seeing his beauty, he fell so much in love that till now his heart does not stop from stopping his love. The Brahman, who is omnipresent, non-divine, unborn, unapproachable, wishless and inscrutable, and who does not even know the Vedas, can he be a human by holding the body? Vishnu, who holds a human body for the benefit of the gods, is also omniscient like Shiva. They will search for a woman like the ignorant Lord Vishnu, the storehouse of knowledge, Lakshmipati and the enemies of Asuras. Then even the words of Shivji cannot be false. Everyone knows that Shiva is omniscient.
सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था| यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए|जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं| ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है। यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले| जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ| जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना।
This kind of great doubt arose in Sati's mind, in no way was there a rise of knowledge in her heart. Although Bhavaniji did not say anything manifest, but the intermittent Shiva knew. They said- O Sati! Listen, you have a feminine nature. Such doubts should never be kept in mind. Whose story was sung by the sage Agastya and whose devotion I narrated to the sage, he is my presiding deity Shri Raghuveerji, whose knowledgeable sages always serve. The knowledgeable sages, yogis and siddhas constantly meditate on the serene mind and sing the Vedas, Puranas and scriptures as 'Neti-neti', whose omnipresence, the lord of all the universe, Mayapati, the absolute most independent, Brahma as Lord Shri Ramji Has incarnated (in his own will) in Raghukul's Maniroop for the benefit of his devotees. Even though Shivji explained many times, his preaching did not sit in Satiji's heart. Then Mahadevji said smiling knowing the power of God's Maya in his mind. If there is a lot of doubt in your mind then why don't you go and take the exam? Till you come back to me, I am sitting in the shade of this very elder. Just as this ignorant huge illusion of yours is overcome, you should do the same by thinking with (well) discretion.
शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?|इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है|जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे|सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे|सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके।
Sati went after getting Shiva's orders and started thinking in her mind that brother! What should I do (how to take the exam)? Here, Shivji made such a guess in the mind that there is no welfare of Dakshakanya Sati. When even my explanation does not clear the doubt, then (it seems) that the creator is inverted, now Sati is not efficient. Whatever Ram has created will be the same. Who should increase the branch (extension) by reasoning. (In mind) Saying this, Shivji started chanting the name of Lord Shri Hari and Satji went to the place where Lord Ramachandraji was the abode of pleasure. (According to Satiji's view) King of men Ramachandraji was coming. Seeing Satiji's fake dress Lakshmanji was amazed and his heart got confused. He became very serious, could not say anything.
धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे| सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं| स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले| पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं? श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई| कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई|
Dheer wit Lakshman knew the influence of Lord Raghunathji. Lord Ramchandraji, the lord of the gods who saw everything and knows the heart of everyone, came to know the treachery of Sati, whose remembrance is destroyed by ignorance, the same omniscient Lord Shri Ramchandraji. See the effect of the female nature that there (in front of those omniscient Gods) also Sati wants to hide. Saying the power of his illusion in his heart, Shri Ramchandraji laughed and spoke with gentle speech. First Prabhu folded hands and bowed down to Sati and revealed her name along with her father. Then said where is Vrishketu Shivji? Why are you alone here in the forest? Satiji was hesitant to hear the soft and secret words of Shri Ramchandraji. She walked fearfully (quietly) to Shiva, there was a lot of worry in her heart. That I did not listen to Shankarji and accused Shri Ramchandraji of my ignorance. Now what will I answer to Shiva? (Thinking this way) Satiji's heart became very jealous.
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं|
Shri Ramchandraji realized that Satiji felt sad, then he showed some of his influence and showed it to him. On the way, Satiji saw this prodigy that Shri Ramchandraji along with Sitaji and Lakshmanji were going ahead. (On this occasion, Sita was shown to see the true form of Sataji Shri Rama, that the imagery of disconnection and sorrow that he had experienced, would go away and he should be in nature. (Then he) looked back, and there too, Sri Ramachandraji appeared in beautiful garb with brother Lakshmanji and Sitaji. Wherever she sees, there is Lord Sri Ramchandraji sitting there and Suchtur Siddha Munishwar is serving her.
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे है|उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं|सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे|(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे|(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं| फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे|जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो|सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया|आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया|फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया।
Satiji saw many Shiva, Brahma and Vishnu, who were of immense influence from one to the other. (He saw that) All the gods, wearing the same clothes, are chanting and serving Shri Ramchandraji. They saw countless Anupam Sati, Brahmins and Lakshmi. In the same way as Brahma was the deity, he (Shakti) also had all these (powers) in the same way. Satiji saw all the gods along with the powers, wherever he saw Raghunathji. The grasping creatures in the world also see all kinds of things. (They saw that they are worshiping the deity Lord Shri Ramchandraji after wearing many ravages, but nowhere has he seen the other form of Shri Ramchandraji. Shri Raghunathji, along with Sita, saw many, but his clothes were not many. (Everywhere) The same Raghunathji, the same Lakshman and the same Sitaji - Sati were very scared to see this. His heart began to tremble and all the body of the body went away. She blindly sat in the road. Then looking openly, there Dakshakumari (Satiji) could not see anything. Then she again and again walked at the feet of Shri Ramchandraji and went to the place where Shri Shivji was. When she reached near, then Shri Shivji laughed and asked the efficient question that how did you take the exam of Ramji, tell the whole truth. Realizing the influence of Shri Raghunathji, Satji hid from Shiva in fear and said - O lord! I did not take any test, (going there), bowed like you. What you said cannot be a lie, I have this big (complete) belief in my mind. Shiva then meditated and understood all the character that Satiji had done. Then he gave head to Shri Ramachandraji's Maya, who inspired him to lie to Sati.
सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है|सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥4॥ सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है| तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया|स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की|आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-|हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा|सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया| प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है|अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा|शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा|वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे|वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई|तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था|सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-|उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है|सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं,| तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है|तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए|दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली|शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया|शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया| जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो|
Sujan Shivji thought in his mind that the future of Hari's desire is strong. Satiji took the guise of Sitaji, knowing that there was great sadness in Shivji's heart. He thought that if I love Sati now, the path of devotion disappears and great injustice happens. Sati is absolutely pure, so it is not made to leave them and it is a great sin to love. Mahadevji does not say anything by revealing, but there is great sadness in his heart. Then Shivji gave head in the feet lotus of Lord Shri Ramachandraji and as soon as he remembered Shri Ramji, it came to his mind that this body of Sati could not meet me (husband-wife form) and Shivji resolved this in his mind Having done this, considering the steady wisdom Shankarji remembered Shri Raghunathji and went to his house (Kailas). While walking, there was a beautiful voice that O Mahesh! Hail thee. You have good faith in devotion. Who else can make such a promise except you. You are a devotee of Sri Ramachandraji, capable and God. Satiji was worried about hearing this Akashvani and he hesitantly asked Shivji - O kind! Say, what vow have you made? Oh, Lord! You are the abode of truth and Deendayalu. Although Satiji asked in many ways, Tripurari Shivji did not say anything. Satiji guessed in his heart that omniscient Shiva knew all. I cheated with Shiva. See the beautiful way of love, that water also (together with milk) sells the same price as milk, but then the water separates (milk breaks) and tastes (love) goes away as soon as the fraud is broken. Remembering Sati, there is so much thinking and so much concern in the heart that it cannot be described. (He understood that) Shiva is the ultimate ocean of grace. He did not say my crime in this manifestation. Seeing the attitude of Shivji, Satiji realized that Swami abandoned me and she was distraught in heart. Considering his sin, he could not say anything, but the heart (within itself) started burning very much like a potter's courtyard. Vrishketu Shivji, knowing Sati, was worried and told beautiful stories to comfort him. In this way, Vishwanath reached Kailas, telling different kinds of history on the road. Then Shiva remembered his promise and sat under a big tree by planting Padmasana. Shivji took his natural form. His Akhand and immense samadhi was found. Then Sati started living on Kailas. He was very sad. Nobody knew this secret. Every day of them was passing like an era. There was a new and heavy thinking in Satiji's heart that when will I go across this grief sea. I insulted Shri Raghunathji and then let the words of the husband lie - the creator gave me the fruit, he did what was right, but hey! Now this is not fair to you, which has kept me alive even though I am alienated from Shankar. Nothing is said to defame the heart of Satiji. Buddhist Satiji remembered Shri Ramchandraji in his mind and said- O Lord! If you are called Deendayalu and the Vedas have sung your fame that you are going to defeat sorrow. So I plead with folded hands to leave my body soon. If I have love at the feet of Shiva and this fast (of love) is true with my mind, words and deeds (conduct). Listen and quickly take the remedy that will kill me and remove this unbearable calamity (as husband-renunciation) without hard work. Daksasuta Satiji was thus very sad, he had so much sorrow that it cannot be described. After the passage of twenty-seven thousand years, the imperishable Shivaji opened the Samadhi. Shivji started remembering Ramnama, then Satiji realized that now the lord of the world (Shivji) would wake up. He went and bowed at the feet of Shiva. Shivji gave him a seat in front of him to sit. Shivji started telling the rasmayi stories of Lord Hari. At the same time Daksha was the creator. Brahmaji made Daksha the hero of the Prajapatis after seeing him in all respects. When Daksha got such a huge authority, then there was great pride in his heart. There is no one born in the world who does not have an item by gaining sovereignty.
Shivji was thinking in my heart that how should I see God. God has incarnated in secret, everyone will know by my departure. A great uproar arose in the heart of Shri Shankarji, but Satiji did not know this distinction. Tulsidasji says that Shiva had a fear in his mind (of opening up the secret), but his eyes were tempted by the greed of philosophy. Ravana asked (from Brahmaji) his death at the hands of man.God wants to make the words of Brahmaji true. If I don't go near, I will be very sorry. In this way, Shiva used to think, but none of the tactics fit. In this way, Mahadevji became worried. At the same time, Neecha Ravana went and took Marich with him and he (Marich) immediately became a treacherous antelope. The fool (Ravana) tricked and defeated Sitaji. He did not know anything of the real influence of Shri Ramchandraji. After killing the deer, Shri Hari along with brother Lakshman came to the ashram and seeing him empty (that is, not finding Sita there) filled his eyes with tears. Shri Raghunath ji is distraught as a human being, and both brothers have been searching for Sita in the forest. In those who have never had any accidental disconnection, the misery of direct disarray was seen.
श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं| श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया| जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े।
The character of Shri Raghunathji is very strange, only the learned knowledgeers know him. Those who are retarded, especially under the influence of attachment, understand something else in the heart. Shri Shivji saw Shri Ramji on the same occasion and there was great joy in his heart. Shivaji looked at the sea of beauty (Shri Ramchandraji) with an eye, but did not introduce the opportunity by not knowing the opportunity. Hail to Sachchidananda, who purifies the world, saying that Lord Shiva, who destroyed Kamdev, started walking.
कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे|| सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं| उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती| जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं।
Kripanidhan Shivji was blissfully passing away with Satiji. When Satiji saw Shankar's condition, a lot of doubt arose in his mind. (She started to say in her mind that) She praises Shankar ji's whole world, He is the God of the world, God, man, sage all give heads towards them.He greeted a Rajputra as Sachchidananda Pardham and on seeing his beauty, he fell so much in love that till now his heart does not stop from stopping his love. The Brahman, who is omnipresent, non-divine, unborn, unapproachable, wishless and inscrutable, and who does not even know the Vedas, can he be a human by holding the body? Vishnu, who holds a human body for the benefit of the gods, is also omniscient like Shiva. They will search for a woman like the ignorant Lord Vishnu, the storehouse of knowledge, Lakshmipati and the enemies of Asuras. Then even the words of Shivji cannot be false. Everyone knows that Shiva is omniscient.
सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था| यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए|जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं| ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है। यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले| जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ| जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना।
This kind of great doubt arose in Sati's mind, in no way was there a rise of knowledge in her heart. Although Bhavaniji did not say anything manifest, but the intermittent Shiva knew. They said- O Sati! Listen, you have a feminine nature. Such doubts should never be kept in mind. Whose story was sung by the sage Agastya and whose devotion I narrated to the sage, he is my presiding deity Shri Raghuveerji, whose knowledgeable sages always serve. The knowledgeable sages, yogis and siddhas constantly meditate on the serene mind and sing the Vedas, Puranas and scriptures as 'Neti-neti', whose omnipresence, the lord of all the universe, Mayapati, the absolute most independent, Brahma as Lord Shri Ramji Has incarnated (in his own will) in Raghukul's Maniroop for the benefit of his devotees. Even though Shivji explained many times, his preaching did not sit in Satiji's heart. Then Mahadevji said smiling knowing the power of God's Maya in his mind. If there is a lot of doubt in your mind then why don't you go and take the exam? Till you come back to me, I am sitting in the shade of this very elder. Just as this ignorant huge illusion of yours is overcome, you should do the same by thinking with (well) discretion.
शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?|इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है|जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे|सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचंद्रजी आ रहे थे|सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके।
Sati went after getting Shiva's orders and started thinking in her mind that brother! What should I do (how to take the exam)? Here, Shivji made such a guess in the mind that there is no welfare of Dakshakanya Sati. When even my explanation does not clear the doubt, then (it seems) that the creator is inverted, now Sati is not efficient. Whatever Ram has created will be the same. Who should increase the branch (extension) by reasoning. (In mind) Saying this, Shivji started chanting the name of Lord Shri Hari and Satji went to the place where Lord Ramachandraji was the abode of pleasure. (According to Satiji's view) King of men Ramachandraji was coming. Seeing Satiji's fake dress Lakshmanji was amazed and his heart got confused. He became very serious, could not say anything.
धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे| सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं| स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले| पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं? श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई| कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई|
Dheer wit Lakshman knew the influence of Lord Raghunathji. Lord Ramchandraji, the lord of the gods who saw everything and knows the heart of everyone, came to know the treachery of Sati, whose remembrance is destroyed by ignorance, the same omniscient Lord Shri Ramchandraji. See the effect of the female nature that there (in front of those omniscient Gods) also Sati wants to hide. Saying the power of his illusion in his heart, Shri Ramchandraji laughed and spoke with gentle speech. First Prabhu folded hands and bowed down to Sati and revealed her name along with her father. Then said where is Vrishketu Shivji? Why are you alone here in the forest? Satiji was hesitant to hear the soft and secret words of Shri Ramchandraji. She walked fearfully (quietly) to Shiva, there was a lot of worry in her heart. That I did not listen to Shankarji and accused Shri Ramchandraji of my ignorance. Now what will I answer to Shiva? (Thinking this way) Satiji's heart became very jealous.
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।(तब उन्होंने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं|
Shri Ramchandraji realized that Satiji felt sad, then he showed some of his influence and showed it to him. On the way, Satiji saw this prodigy that Shri Ramchandraji along with Sitaji and Lakshmanji were going ahead. (On this occasion, Sita was shown to see the true form of Sataji Shri Rama, that the imagery of disconnection and sorrow that he had experienced, would go away and he should be in nature. (Then he) looked back, and there too, Sri Ramachandraji appeared in beautiful garb with brother Lakshmanji and Sitaji. Wherever she sees, there is Lord Sri Ramchandraji sitting there and Suchtur Siddha Munishwar is serving her.
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे है|उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं|सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे|(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे|(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं| फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे|जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो|सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया|आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया|फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया।
Satiji saw many Shiva, Brahma and Vishnu, who were of immense influence from one to the other. (He saw that) All the gods, wearing the same clothes, are chanting and serving Shri Ramchandraji. They saw countless Anupam Sati, Brahmins and Lakshmi. In the same way as Brahma was the deity, he (Shakti) also had all these (powers) in the same way. Satiji saw all the gods along with the powers, wherever he saw Raghunathji. The grasping creatures in the world also see all kinds of things. (They saw that they are worshiping the deity Lord Shri Ramchandraji after wearing many ravages, but nowhere has he seen the other form of Shri Ramchandraji. Shri Raghunathji, along with Sita, saw many, but his clothes were not many. (Everywhere) The same Raghunathji, the same Lakshman and the same Sitaji - Sati were very scared to see this. His heart began to tremble and all the body of the body went away. She blindly sat in the road. Then looking openly, there Dakshakumari (Satiji) could not see anything. Then she again and again walked at the feet of Shri Ramchandraji and went to the place where Shri Shivji was. When she reached near, then Shri Shivji laughed and asked the efficient question that how did you take the exam of Ramji, tell the whole truth. Realizing the influence of Shri Raghunathji, Satji hid from Shiva in fear and said - O lord! I did not take any test, (going there), bowed like you. What you said cannot be a lie, I have this big (complete) belief in my mind. Shiva then meditated and understood all the character that Satiji had done. Then he gave head to Shri Ramachandraji's Maya, who inspired him to lie to Sati.
सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है|सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥4॥ सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है| तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया|स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की|आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-|हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा|सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया| प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है|अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा|शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा|वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे|वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई|तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था|सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-|उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है|सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं,| तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है|तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए|दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली|शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया|शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया| जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो|
Sujan Shivji thought in his mind that the future of Hari's desire is strong. Satiji took the guise of Sitaji, knowing that there was great sadness in Shivji's heart. He thought that if I love Sati now, the path of devotion disappears and great injustice happens. Sati is absolutely pure, so it is not made to leave them and it is a great sin to love. Mahadevji does not say anything by revealing, but there is great sadness in his heart. Then Shivji gave head in the feet lotus of Lord Shri Ramachandraji and as soon as he remembered Shri Ramji, it came to his mind that this body of Sati could not meet me (husband-wife form) and Shivji resolved this in his mind Having done this, considering the steady wisdom Shankarji remembered Shri Raghunathji and went to his house (Kailas). While walking, there was a beautiful voice that O Mahesh! Hail thee. You have good faith in devotion. Who else can make such a promise except you. You are a devotee of Sri Ramachandraji, capable and God. Satiji was worried about hearing this Akashvani and he hesitantly asked Shivji - O kind! Say, what vow have you made? Oh, Lord! You are the abode of truth and Deendayalu. Although Satiji asked in many ways, Tripurari Shivji did not say anything. Satiji guessed in his heart that omniscient Shiva knew all. I cheated with Shiva. See the beautiful way of love, that water also (together with milk) sells the same price as milk, but then the water separates (milk breaks) and tastes (love) goes away as soon as the fraud is broken. Remembering Sati, there is so much thinking and so much concern in the heart that it cannot be described. (He understood that) Shiva is the ultimate ocean of grace. He did not say my crime in this manifestation. Seeing the attitude of Shivji, Satiji realized that Swami abandoned me and she was distraught in heart. Considering his sin, he could not say anything, but the heart (within itself) started burning very much like a potter's courtyard. Vrishketu Shivji, knowing Sati, was worried and told beautiful stories to comfort him. In this way, Vishwanath reached Kailas, telling different kinds of history on the road. Then Shiva remembered his promise and sat under a big tree by planting Padmasana. Shivji took his natural form. His Akhand and immense samadhi was found. Then Sati started living on Kailas. He was very sad. Nobody knew this secret. Every day of them was passing like an era. There was a new and heavy thinking in Satiji's heart that when will I go across this grief sea. I insulted Shri Raghunathji and then let the words of the husband lie - the creator gave me the fruit, he did what was right, but hey! Now this is not fair to you, which has kept me alive even though I am alienated from Shankar. Nothing is said to defame the heart of Satiji. Buddhist Satiji remembered Shri Ramchandraji in his mind and said- O Lord! If you are called Deendayalu and the Vedas have sung your fame that you are going to defeat sorrow. So I plead with folded hands to leave my body soon. If I have love at the feet of Shiva and this fast (of love) is true with my mind, words and deeds (conduct). Listen and quickly take the remedy that will kill me and remove this unbearable calamity (as husband-renunciation) without hard work. Daksasuta Satiji was thus very sad, he had so much sorrow that it cannot be described. After the passage of twenty-seven thousand years, the imperishable Shivaji opened the Samadhi. Shivji started remembering Ramnama, then Satiji realized that now the lord of the world (Shivji) would wake up. He went and bowed at the feet of Shiva. Shivji gave him a seat in front of him to sit. Shivji started telling the rasmayi stories of Lord Hari. At the same time Daksha was the creator. Brahmaji made Daksha the hero of the Prajapatis after seeing him in all respects. When Daksha got such a huge authority, then there was great pride in his heart. There is no one born in the world who does not have an item by gaining sovereignty.
दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया तथा सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया और शिव जी को जानबूझ कर नहीं बुलाया | सती ने अपने पति का अपमान होते देख यज्ञकुंड में ही अपनी आहुति दे दी और भगवान् शिव ने वीरभद्र को भेज दक्ष के यज्ञ मंडल का विध्वंस कर डाला | कालांतर में सती ने हिमालय के यहाँ पार्वती रूप में जन्म लिया तथा घोर तपस्या के बाद शंकर जी को पति रूप में पाने की कामना की | उधर शंकर जी सती की मृत्यु के बाद समाधी ले चुके थे और राम नाम का निरंतर जप करते थे | प्रभु राम ने शंकर जी को पार्वती जी के बारे में बताया और आग्रह किया की शिवजी उनसे विवाह करें और अपना घोर संताप छोड़ दें | इस प्रकार भगवान् राम ने उमा अर्थात पार्वती जी को शंकर जी पाने में सहायता की |
Daksha conducted a yajna and invited all the gods and goddesses and did not deliberately call Shiva. Seeing Sati's insult to her husband, she sacrificed herself at Yajnakund and Lord Shiva sent Veerabhadra to destroy Daksha's yagna mandal. Later Sati took birth in Parvati form in the Himalayas and after intense penance, wished to get Shankar ji as her husband. On the other hand, Shankar ji had taken samadhi after the death of Sati and used to chant the name Ram continuously. Lord Rama told Shankar ji about Parvati ji and requested that Shiva should marry her and leave her grief. In this way Lord Rama helped Uma i.e. Parvati ji to get Shankar ji.
Daksha conducted a yajna and invited all the gods and goddesses and did not deliberately call Shiva. Seeing Sati's insult to her husband, she sacrificed herself at Yajnakund and Lord Shiva sent Veerabhadra to destroy Daksha's yagna mandal. Later Sati took birth in Parvati form in the Himalayas and after intense penance, wished to get Shankar ji as her husband. On the other hand, Shankar ji had taken samadhi after the death of Sati and used to chant the name Ram continuously. Lord Rama told Shankar ji about Parvati ji and requested that Shiva should marry her and leave her grief. In this way Lord Rama helped Uma i.e. Parvati ji to get Shankar ji.
पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं कि जब भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विजय प्राप्त करने के लिये उन्होंनें समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने श्री राम को विजयश्री का आशीर्वाद दिया था। आशीर्वाद मिलने के साथ ही श्री राम ने अनुरोध किया कि वे जनकल्याण के लिये सदैव इस ज्योतिर्लिंग रुप में यहां निवास करें उनकी इस प्रार्थना को भगवान शंकर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
It is mentioned in the mythological texts that when Lord Sri Rama ascended Lanka, he worshiped Lord Shiva by making a Shiva lingam on the seashore to achieve victory. Pleased with this, Lord Bholenath gave the blessings of Vijayashree to Shri Rama. With the blessings, Shri Rama requested that he should always stay here in this Jyotirlinga form for public welfare, Lord Shankar accepted his request with pleasure.
इसके अलावा ज्योतिर्लिंग के स्थापित होने की एक कहानी और है इसके अनुसार जब भगवान श्री राम लंका पर विजय प्राप्त कर लौट रहे थे तो उन्होंनें गंधमादन पर्वत पर विश्राम किया वहां पर ऋषि मुनियों ने श्री राम को बताया कि उन पर ब्रह्महत्या का दोष है जो शिवलिंग की पूजा करने से ही दूर हो सकता है। इसके लिये भगवान श्री राम ने हनुमान से शिवलिंग लेकर आने की कही। हनुमान तुरंत कैलाश पर पहुंचे लेकिन वहां उन्हें भगवान शिव नजर नहीं आये अब हनुमान भगवान शिव के लिये तप करने लगे उधर मुहूर्त का समय बीता जा रहा था। अंतत: भगवान शिवशंकर ने हनुमान की पुकार को सुना और हनुमान ने भगवान शिव से आशीर्वाद सहित शिवलिंग प्राप्त किया लेकिन तब तक देर हो चुकी मुहूर्त निकल जाने के भय से माता सीता ने बालु से ही विधिवत रुप से शिवलिंग का निर्माण कर श्री राम को सौंप दिया जिसे उन्होंनें मुहूर्त के समय स्थापित किया। जब हनुमान वहां पहुंचे तो देखा कि शिवलिंग तो पहले ही स्थापित हो चुका है इससे उन्हें बहुत बुरा लगा। श्री राम हनुमान की भावनाओं को समझ रहे थे उन्होंनें हनुमान को समझाया भी लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए तब श्री राम ने कहा कि स्थापित शिवलिंग को उखाड़ दो तो मैं इस शिवलिंग की स्थापना कर देता हूं। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी हनुमान ऐसा न कर सके और उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो श्री राम ने हनुमान द्वारा लाये शिवलिंग को भी नजदीक ही स्थापित किया और उसका नाम हनुमदीश्वर रखा।
Apart from this, there is another story of the establishment of the Jyotirlinga. According to this, when Lord Sri Rama was returning after conquering Lanka, he rested on the Gandhamadan mountain, where the sage sages told Shri Rama that he was guilty of Brahmana which is the Shivling. Only by worshiping can be overcome. For this, Lord Shree Rama asked Hanuman to bring Shivling. Hanuman immediately reached Kailash but there he could not see Lord Shiva, now Hanuman started doing penance for Lord Shiva, the time of Muhurta was being passed. Finally Lord Shiva Shankar heard the call of Hanuman and Hanuman received the Shivalinga with blessings from Lord Shiva but by then fearing that the late Muhurta would come out, Mother Sita duly constructed the Shivalinga from the sand and handed it to Sri Rama. Which he established at the time of Muhurta. When Hanuman reached there, he saw that the Shivling was already installed, he felt very bad. Sri Rama was understanding the feelings of Hanuman, he also explained to Hanuman, but he was not satisfied, then Shri Rama said that I should set up the Shiva lingam, then uproot the established Shivalinga. But even after lakhs of attempts, Hanuman could not do it and when he realized his mistake, Sri Rama also installed the Shiva lingam brought by Hanuman and named it Hanumadishwar.
Om Namah Shivay
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