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रविवार, 23 अगस्त 2020

भगवान परशुराम (God Parshuam)

|| जय सीया राम || 



 
|| जय श्री गणेश || 

 
 
भगवान परशुराम 
 
परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे तथा मातृभक्त थे ।पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार भगवान् परशुराम विष्णु के छठा अवतार हैं[।  उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इंदौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं तथा राम सीता विवाह प्रसंग में उन्हें बहुत क्रोधित मुनि के रूप में चित्रण किया गया है यद्यपि भगवन परशुराम बहुत ही दयावान तथा दानवीर थे  । वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये इसी परशु से परशुराम जी ने भगवान् गणेश का एक दांत तोड़ डाला था और भगवान् गणेश तब से एकदन्त कहलाये । आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

भगवान राम द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने पर भगवान परशुराम राजा जनक के समारोह में क्रोधित होकर पहुंचे और उन्हें क्रोधित देख सभी राजा डर गए साथ ही कुछ खुश हो गए की अब राम जी को धनुष तोड़ने की सजा भगवान् परशुराम देंगे | राजा जनक ने उनका आदरपूर्वक सत्कार किया किन्तु वह शांत ना हुए | इस पर लक्षमण जी ने अनेको व्यंग किये किन्तु परशुराम जी ने उन्हें बालक जानकर क्षमा किया और प्रभु राम की कोमल वाणी की सराहना करते उन्होंने लक्ष्मण जी की धृष्ट्ता को ध्यान ही नहीं दिया | जब प्रभु राम ने उनके धनुष से तीर चलाया तब वह तुरंत भगवान् विष्णु के अवतार प्रभु राम को पहचान गए और उनकी जय जयकार करते हुए तपस्या के लिए चले गए | 

भगवान् राम उन्हें प्रसन्न होकर उन्हें आदर सहित विदा किया | द्वापर युग में भी भगवान् परशुराम जी के गंगापुत्र भीष्म तथा कर्ण जैसे शिष्य हुए | हालाँकि कर्ण ने उनसे झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की थी फिर भी उन्होंने कर्ण को उसी समय शिक्षा भूलने का शाप ना देकर उनकी मृत्यु के समय शिक्षा को भूल जाने का शाप दिया | 

अपने पिता के आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण उन्होंने पिता की आज्ञा से अपनी माता का वध किया किन्तु पिता से ही उन्हें पुनर्जिवित करने का वरदान मांग लिया | रावण को हराने वाले सहस्त्रबाहू को कुल समेत मार देने के पश्चात भगवान परशुराम ने दान में पूरी पृथ्वी को ही ब्राह्मणों को दे दिया था यहाँ तक की जब गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे उनके अस्त्र तथा शस्त्र मांगे तो भी उन्होंने कोई संकोच नहीं किया और सब कुछ दान देकर खुद तपस्या में लीन हो गए | 


गुरुवार, 11 जून 2020

वानरवीर अंगद ( Vaanarveer Angad )

|| जय श्री राम || 

|| वानरवीर अंगद || 




अंगद बालि के पुत्र थे। बालि इनसे सर्वाधिक प्रेम करता था। ये परम बुद्धिमान, अपने पिता के समान बलशाली तथा भगवान श्रीराम के परम भक्त थे। अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी और सर्वस्व हरण करने के अपराध में भगवान श्रीराम के हाथों बालि की मृत्यु हुई। मरते समय बालि ने भगवान राम को ईश्वर के रूप में पहचाना और अपने पुत्र अंगद को उनके चरणों में सेवक के रूप में समर्पित कर दिया। प्रभु राम ने बालि की अन्तिम इच्छा का सम्मान करते हुए अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाये गये। सुग्रीव के भाई बालि के पुत्र अंगद की माता का नाम तारा था जो एक अप्सरा थीं।जब प्रभु श्रीराम ने अंगद के पिता वानरराज बालि का वध कर दिया था तो बालि ने मरते वक्त अपने पुत्र को पास बुलाकर उसे ज्ञान की तीन बातें बताई थी। बालि ने कहा, पहली बात ध्यान रखना देश, काल और परिस्थितियों को हमेशा समझकर कार्य करना। दूसरी बात यह कि किसके साथ कब, कहां और कैसा व्यवहार करें, इसका सही निर्णय लेना।

Angad was the son of Bali. Bali loved them the most. He was supremely intelligent, as powerful as his father, and an ardent devotee of Lord Shri Ram. Bali died at the hands of Lord Shri Ram in the guilt of killing his younger brother Sugriva and all. While dying, Bali recognized Lord Rama as God and dedicated his son Angad as a servant at his feet. Lord Ram accepted Angad while respecting Bali's last wish. Sugriva got the kingdom of Kishkindha and Angad was made the crown prince. The mother of Angad, the son of Sugriva's brother Bali, was Tara who was an nymph. When Lord Sriram killed Angad's father Vanararaj Bali, Bali called his son near and told him three things of wisdom when he died. Bali said, the first thing to keep in mind is to always work by understanding the country, time and circumstances. The second is to make the right decision with whom, when, where and how to behave.


अंत में बालि ने तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कही कि पसंद-नापसंद, सुख-दु:ख को सहन करना और क्षमाभाव के साथ जीवन व्यतीत करना। यही जीवन का सार है। बालि ने अपने पुत्र अंगद से ये बातें ध्यान रखते हुए कहा कि अब से तुम सुग्रीव के साथ रहो और हमेशा प्रभु श्रीराम की शरण में रहना वे त्रैलोक्यपति हैं। बालि के कहने पर ही अंगद ने सुग्रीव के साथ रहकर प्रभु श्रीराम की सेवा की। अंगद ने प्रभु श्री राम के द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व को बखूबी संभाला। बालि वध के बाद सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य मिला और अंगद युवराज बनाए गए। सीता की खोज में वानरी सेना का नेतृत्व युवराज अंगद ने ही किया। सम्पाती से सीता के लंका में होने की बात जानकर अंगद समुद्र पार जाने के लिये तैयार हो गये, किन्तु दल का नेता होने के कारण जामवन्त ने इन्हें जाने नहीं दिया और हनुमान लंका गये।

In the end, Bali said the third most important thing is to like, dislike, tolerate happiness and sorrow and lead a life of forgiveness. This is the essence of life. Bali said this to his son Angad, keeping in mind that from now on you stay with Sugriva and always remain in the shelter of Lord Shri Ram, he is the Trilokyapati. Angad served Lord Shree Ram by staying with Sugriva at the behest of Bali.After the Bali slaughter Sugriva got the kingdom of Kishkindha and Angad was made the crown prince. Yuvraj Angad led the forestry army in search of Sita. Knowing that Sita was in Lanka from Sampathi, Angad agreed to go across the sea, but being the leader of the party, Jamwant did not let him go and Hanuman went to Lanka.
 
 
हनुमान, अंगद और जामवंत जैसे कई विद्वान प्राण विद्या में पारंगत थे। राम ने अंगद से कहा कि हे अंगद! रावण के द्वार जाओ। कुछ सुलह हो जाए, उनके और हमारे विचारों में एकता आ जाए, जाओ तुम उनको शिक्षा दो। 

Many scholars like Hanuman, Angad and Jamwant were proficient in Pran Vidya. Ram said to Angad, O Angad! Go to Ravana's door. Let there be some reconciliation, there should be unity between them and our thoughts, go teach them.

जब अंगद रावण की सभा में पहुंचे तो वहां नाना प्रकार के वैज्ञानिक भी विराजमान थे, वण और उनके सभी पुत्र विराजमान थे। रावण ने कहा कि आओ! तुम्हारा आगमन कैसे हुआ? अंगद ने कहा कि प्रभु मैं इसलिए आया हूं कि राम और तुम्हारे दोनों के विचारों में एकता आ जाए। तुम्हारे यहां संस्कृति के प्रसार में अभाव आ गया है, अब मैं उस अभाव को शांत करने आया हूं। चरित्र की स्थापना करना राजा का कर्त्तव्य होता है, तुम्हारे राष्ट्र में चरित्र हीनता आ गई है, तुम्हारा राष्ट्र उत्तम प्रतीत नहीं हो रहा है इसलिए मैं आज यहां आया हूं। रावण ने कहा कि यह तो तुम्हारा विचार यथार्थ है परन्तु मेरे यहां क्या सूक्ष्मता है?अंगद वहां श्रीराम का संदेश लेकर राजदूत बनकर जाते हैं लेकिन जब रावण उन्‍हें बैठने के लिए आसन नहीं देता है तो वे स्‍वयं की पूंछ का आकार बढ़ाकर उसी का आसन बनाकर वहीं बैठ जाते हैं। यह आसन रावण के आसन से भी ऊंचा होता है। यह देख रावण सहित समस्‍त असुर हतप्रभ रह जाते हैं।

When Angad reached the assembly of Ravana, there were many types of scientists sitting there, Vana and all his sons were sitting. Ravana said come! How did you arrive Angad said that Lord I have come so that the thoughts of both Rama and you may come together. There has been a lack of spread of culture here, now I have come to calm that deficiency.Ravana said that this is your idea of ​​reality but what is fine with me? Angad goes there as an ambassador with the message of Shri Ram, but when Ravana does not give him the seat to sit, he increases the size of his tail and makes it his own posture. Sit there. This posture is also higher than the posture of Ravana. Seeing this, all the demons including Ravana are shocked.
 
अब अंगद बोले तुम्हारे यहां चरित्र की सूक्ष्मता है। राजा के राष्ट्र में जब चरित्र नहीं होता तो संस्कृति का विनाश हो जाता है। संस्कृति का विनाश नहीं होना चाहिए, संस्कृति का उत्थान करना है। संस्कृति यही कहती है कि मानव के आचार व्यव्हार को सुन्दर बनाया जाए, महत्ता में लाया जाए, एक दूसरे की पुत्री की रक्षा होनी चाहिए। वह राजा के राष्ट्र की पद्धति कहलाती है।

Now Angad said, you have a subtlety of character here. When there is no character in the king's nation, the culture is destroyed. Culture should not be destroyed, culture has to be uplifted. Culture says that the behavior of human beings should be made beautiful, brought in importance, each other's daughter should be protected. He called the nation down the king.
 
रावण ने पूछा क्या मेरे राष्ट्र में विज्ञान नहीं? अंगद बोले कि हे रावण! तुम्हारे राष्ट्र में विज्ञान है परन्तु विज्ञान का क्या बनता है? एक मंगल की यात्रा कर रहा है परन्तु मंगल की यात्रा का क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में अग्निकांड हो रहे हैं। हे रावण! तुम सूर्य मंडल की यात्रा कर रहे हो, उस सूर्य की यात्रा करने से क्या बनेगा, जब तुम्हारे राष्ट्र में एक कन्या का जीवन सुरक्षित नहीं। तुम्हारे राष्ट्र का क्या बनेगा?

Ravana asked, Is there no science in my nation? Angad said that O Ravan! There is science in your nation, but what is made of science? One is traveling to Mars, but what will become of the journey to Mars, when there are fireballs in your nation. Hey Ravana! You are traveling to the solar system, what will happen when you travel to that sun, when a girl's life is not safe in your nation. What will happen to your nation?
 
रावण ने कहा कि यह तुम क्या उच्चारण कर रहे हो, तुम अपने पिता की परंपरा शांत कर गए हो। अंगद ने कहा कदापि नहीं, में इसलिए आया हूं कि तुम्हारे राष्ट्र और अयोध्या दोनों का समन्वय हो जाए।

Ravana said what are you saying, you have calmed down your father's tradition. Angad said, no, I have come so that both your nation and Ayodhya can be coordinated.
 
इस पर रावण मौन हो गया। नरायान्तक बोले कि भगवन! इसको विचारा जाए, यह दूत है, यह क्या कहता है? अंगद बोले यदि भगवन! राम से तुम अपने विचारों का समन्वय कर लोगे तो राम माता सीता को लेकर चले जाएंगे।

Ravan became silent on this. Narayanatak said that God! Consider it, this is the messenger, what does it say? Angad said if God If you coordinate your thoughts with Rama, then Rama will go with Mother Sita.
 
रावण ने कहा कि यह क्या उच्चारण कर रहा है? मैं धृष्ट नहीं हूं। अंगद बोले यही धृष्टता है संसार में, किसी दूसरे की कन्या को हरण करके लाना एक महान धृष्टता है। तुम्हारी यह धृष्टता है कि राजा होकर भी परस्त्रीगामी बन गए हो। जो राजा किसी स्त्री का अपमान करता है उस राजा के राष्ट्र में अग्निकाण्ड हो जाते हैं।

Ravana said what is it chanting? I am not reckless. Angad said that this is the audacity in the world, it is a great audacity to take away another girl. It is your audacity that even after being a king, you have become transcendental. The king who insults a woman gets set on fire in that king's nation.
 
रावण ने कहा कि यह कटु उच्चारण कर रहा है। अंगद ने कहा कि मैं तुम्हें प्राण की एक क्रिया निश्चित कर रहा हूं, यदि चरित्र की उज्ज्वलता है तो मेरा यह पग है इस पग को यदि तुम एक क्षण भी अपने स्थान से दूर कर दोगे तो मैं उस समय में माता सीता को त्याग करके राम को अयोध्या ले जाऊंगा। अंगद ने प्राण की क्रिया की और उनका शरीर विशाल एवं बलिष्‍ठ बन गया।
Ravana said that it is bitter. Angad said that I am making you an action of life, if there is a brightness of the character, this is my foot, if you remove this step from your place even for a moment, then I will abandon Mother Sita in that time Ram Will take you to Ayodhya Angad performed the life of Pran and his body became huge and athletic.
 
राजसभा में कोई ऐसा बलिष्ठ नहीं था जो उसके पग को एक क्षण भर भी अपनी स्थिति से दूर कर सके। अंगद का पग जब एक क्षण भर दूर नहीं हुआ तो रावण उस समय स्वतः चला परन्तु रावण के आते ही उन्होंने कहा कि यह अधिराज है, अधिराजों से पग उठवाना सुन्दर नहीं है। उन्होंने अपने पग को अपनी स्थली में नियुक्त कर दिया और कहा कि हे रावण! तुम्हें मेरे चरणों को स्पर्श करना निरर्थक है। यदि तुम राम के चरणों को स्पर्श करो तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है। रावण मौन होकर अपने स्थल पर विराजमान हो गया।

There was no sacrifice in the Rajya Sabha that could take away his foot from his position even for a moment. When Angad's foot did not go away for a moment, Ravana went on his own at that time, but as soon as Ravana came, he said that it is the sovereign, it is not beautiful to take the steps from the authorities. He appointed his foot in his place and said, O Ravana! It is useless for you to touch my feet. If you touch the feet of Rama, you can be benefited. Ravana sat silently at his place.

देवी अहिल्या ( Devi Ahilyaa )


|| जय सिया राम || 

 
देवी अहिल्या 
 
 

पद्मपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में अप्सराओं से घिरे रहने के बाद भी कामवासना से घिरे रहते थे। एक दिन वो धरती पर विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक कुटिया के बाहर गौतम ऋषि की पत्नी देवी अहिल्या दैनिक कार्यों में व्यस्त हैं। अहिल्या इतनी सुंदर और रूपवती थी कि इन्द्र उन्हें देखकर मोहित हो गए। इस तरह इन्द्र रोजाना देवी अहिल्या को देखने के लिए कुटिया के बाहर आने लगे। धीरे-धीरे उन्हें गौतम ऋषि की दिनचर्या के बारे में पता चलने लगा। इन्द्र को अहिल्या के रूप को पाने की एक युक्ति सूझी। उन्होंने सुबह गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या के साथ कामक्रीडा करने की योजना बनाई क्योंकि सूर्य उदय होने से पूर्व ही गौतम ऋषि नदी में स्नान करने के लिए चले जाते थे।
इसके बाद करीब 2-3 घंटे बाद पूजा करने के बाद आते थे। इन्द्र आधी रात से ही कुटिया के बाहर छिपकर ऋषि के जाने की प्रतीक्षा करने लगे। इस दौरान इन्द्र की कामेच्छा उनपर इतनी हावी हो गई कि उन्हें एक और योजना सूझी। उन्होंने अपनी माया से ऐसा वातावरण बनाया जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि सुबह हो गई हो। ये देखकर गौतम ऋषि कुटिया से बाहर चले गए। उनके जाने के कुछ समय बाद इन्द्र ने गौतम ऋषि का वेश बनाकर कुटिया में प्रवेश किया। उन्होंने आते ही कहा अहिल्या से प्रणय निवेदन किया.।

According to a legend described in the Padmapurana, Devraj Indra was surrounded by sex even after being surrounded by apsaras in Swargaloka. One day he was wandering on the earth. Then he saw that outside a hut, Goddess Ahilya, wife of Gautama Rishi, is busy with daily tasks. Ahalya was so beautiful and beautiful that Indra was fascinated to see her. In this way, Indra started coming out of the hut to see Goddess Ahilya daily. Gradually he came to know about the routine of Gautama Rishi. Indra figured out a way to get Ahalya's form. He planned to perform Kamkrida with Ahilya disguised as Gautam Rishi in the morning as Gautam Rishi used to go to bathe in the river before the sun rose. After this, they used to come after worshiping after about 2-3 hours. Indra hid outside the hut and waited for the sage to leave. During this time Indra's libido became so much dominated by him that he realized another plan. He created such an atmosphere with his illusion that it seemed that it was morning. Seeing this, Gautam Rishi walked out of the hut. Shortly after his departure, Indra entered the hut disguised as Gautam Rishi. As soon as he came, he said to Ahilya.
अपने पति द्वारा इस तरह के विचित्र व्यवहार को देखकर पहले तो देवी अहिल्या को शंका हुई लेकिन इन्द्र के छल-कपट से सराबोर मीठी बातों को सुनकर अहिल्या भी अपने पति के स्नेह में सबकुछ भूल बैठी। दूसरी तरफ नदी के पास जाने पर गौतम ऋषि ने आसपास का वातावरण देखा जिससे उन्हें अनुभव हुआ कि अभी भोर नहीं हुई है। वो किसी अनहोनी की कल्पना करके अपने घर पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि उनके वेश में कोई दूसरा पुरुष उनकी पत्नी के साथ रति क्रियाएं कर रहा है।

Goddess Ahilya was skeptical at first seeing such strange behavior by her husband, but after listening to the sweet talk of Indra's deceit, Ahilya too forgot everything in her husband's affection. On the other hand, near the river, Gautam Rishi saw the surrounding environment, which made him feel that it is not yet dawn. He arrived at his house after imagining something untoward. Going there, he saw that another man in his disguise was performing rituals with his wife.
ये देखते ही वो क्रोध से व्याकुल हो उठे। वहीं दूसरी ओर उनकी पत्नी ने जब अपने पति को अपने सामने खड़ा पाया तो उन्हें सारी बात समझ में आने लगी। अंजाने में किए गए अपराध को सोचकर उनका चेहरा पीला पड़ गया। इन्द्र भी भयभीत हो गए। क्रोध से भरकर गौतम ऋषि ने इन्द्र से कहा 'मूर्ख, तूने मेरी पत्नी का स्त्रीत्व भंग किया है। उसकी योनि को पाने की इच्छा मात्र के लिए तूने इतना बड़ा अपराध कर दिया। यदि तुझे स्त्री योनि को पाने की इतनी ही लालसा है तो मैं तुझे श्राप देता हूं कि अभी इसी समय तेरे पूरे शरीर पर हजार योनियां उत्पन्न हो जाएगी'।

On seeing this, he got distraught with anger. On the other hand, when his wife found her husband standing in front of him, he started to understand the whole thing. Thinking of the crime committed, he had a pale face. Indra also got frightened. Filled with anger, Gautam Rishi said to Indra, 'Fool, you have disturbed my wife's femininity.You committed such a big crime just for want of getting her vagina. If you have such a longing to get a woman's vagina, then I curse you that right now a thousand vagrants will be born on your whole body '.
कुछ ही पलों में श्राप का प्रभाव इन्द्र के शरीर पर पड़ने लगा और उनके पूरे शरीर पर स्त्री योनियां निकल आई। ये देखकर इन्द्र आत्मग्लानिता से भर उठे। उन्होंने हाथ जोड़कर गौतम ऋषि से श्राप मुक्ति की प्रार्थना की। ऋषि ने इन्द्र पर दया करते हुए हजार योनियों को हजार आंखों में बदल दिया। वहीं दूसरी ओर अपनी पत्नी को शिला में बदल दिया। बाद में प्रभु श्रीराम ने उनका पैरों से स्पर्श कर उद्धार किया।
 
In a few moments the curse began to affect Indra's body and female vaginas came out on his entire body. On seeing this, Indra got filled with self-aggression. He folded his hands and prayed to Gautam Rishi for curse. The sage, taking pity on Indra, turned thousands of yonias into thousand eyes. On the other hand, he changed his wife to Shila Later Lord Prabhu touched them with feet.
इन्द्र को 'देवराज' की उपाधि देने के साथ ही उन्हें देवताओं का राजा भी माना जाता है लेकिन उनकी पूजा एक भगवान के तौर पर नहीं की जाती। इन्द्र द्वारा ऐसे ही अपराधों के कारण उन्हें दूसरे देवताओं की तुलना में ज्यादा आदर- सत्कार नहीं दिया जाता।


Besides giving the title of 'Devaraja' to Indra, he is also considered the king of the gods but he is not worshiped as a god. Due to such crimes by Indra, he is not given more respect than other gods.

भगवान राम के चरणों की कृपा से अहिल्या माता का उद्धार हुआ | अहिल्या माता ने कहा प्रभु आप मुझे देख के भी मेरा कल्याण कर सकते हैं किन्तु मेरे दोष देखे बिना ही मेरा उद्धार करें और अपने चरण कमलो की रज का स्पर्श प्रदान करें | ऐसा ही हुआ प्रभु के चरण रज से अहिल्या माता पत्थर से स्त्री रूप में बदल गयी और उनकी आँखों से प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली | अहिल्या माता भगवान राम को बोली की संसार में जिसका कोई नहीं उसके तुम ही हो भगवान | निर्बल के बल राम  .. जय श्री राम  जय श्री राम 

Ahilya Mata was saved by the grace of Lord Rama's feet. Ahilya Mata said Lord, you can do my welfare even by looking at me, but without seeing my faults, save me and give me the touch of the rajas of your lotus feet. It happened like this that Ahilya Mata changed from stone to woman at the feet of the Lord and tears of love flowed from her eyes. Ahilya Mata said to Lord Rama that whoever has no one in the world, only you are God. Ram..  the strength of the weak

बुधवार, 10 जून 2020

विभीषण (Vibhishana )

|| जय सिया राम || 
 
 
 
विभीषण 

घर का भेदी लंका ढाए अर्थात विभीषण ?? क्या विभीषण सच में इस अनादर का पात्र है यह बात समझने एवं जानने योग्य है | विभीषण को कुलद्रोही और आस्तीन का साँप कहना कहाँ तक उचित है | विभीषण तो प्रभु भक्त था तो भी जगत में उसका अनादर क्यूँ ?

Piercing the house in Lanka ie Vibhishan ?? Is Vibhishan really worthy of this disrespect, it is worth understanding and knowing. To what extent is it appropriate to call Vibhishan as a pillar and sleeve snake? Vibhishan was a devotee even if he was disrespected in the world.

रामायण में विभीषण राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी राम भक्त थे। राक्षस रावण के छोटे भाई विभीषण बचपन से ही नारायण भक्त थे, जब तीनों भाइयों रावण, कुंभकरण और विभीषण ने ब्रह्मा जी की तपस्या की तो विभीषण ने उनसे भक्ति का आशीर्वाद मांगा। रावण के सानिध्य  में रहने के बाद भी उन्होंने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी।विभीषण राक्षस होते हुए भी प्रभु की भक्ति में लीन रहते थे | तपस्या में जहाँ बाकि भाइयों ने शक्तियाँ मांगी विभीषण ने प्रभु भक्ति माँगी , इसलिए ही उन्हे प्रभु भक्ति का फल मिला और श्री राम प्रभु ने बिना मांगे एक क्षण में उन्हें लंका का राजा बना दिया|  

Rama was a devotee even after being born in the Vibhishana demon clan in Ramayana. Vibhishan, the younger brother of the demon Ravana, was a Narayan devotee since childhood, when all the three brothers Ravana, Kumbhakaran and Vibhishana did penance to Brahma Ji, Vibhishana sought blessings of devotion from him. Even after being in the company of Ravana, he did not give up his devotion. Despite being a demon, he used to indulge in devotion to the Lord. In austerities where the remaining brothers asked for powers, Vibhishana asked for devotion to God, that is why he got the fruits of Bhakti and Shri Ram Prabhu made him king of Lanka in an instant without asking.
 

रावण ने जब सीता जी का हरण किया, तब विभीषण ने परायी स्त्री के हरण को महापाप बताते हुए सीता जी को श्री राम को लौटा देने की उसे सलाह दी। किन्तु रावण ने उस पर कोई ध्यान न दिया। श्री हनुमान जी सीता की खोज करते हुए लंका में आये। उन्होंने श्री रामनाम से अंकित विभीषण का घर देखा। घर के चारों ओर तुलसी के वृक्ष लगे हुए थे। सूर्योदय के पूर्व का समय था, उसी समय श्री राम-नाम का स्मरण करते हुए विभीषण जी की निद्रा भंग हुईं। राक्षसों के नगर में श्री रामभक्त को देखकर हनुमान जी को आश्चर्य हुआ। दो रामभक्तों का परस्पर मिलन हुआ। श्री हनुमान जी का दर्शन करके विभीषण भाव विभोर हो गये। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि श्री रामदूत के रूप में श्री राम ने ही उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया है। श्री हनुमान जी ने उनसे पता पूछकर अशोक वाटिका में माता सीता का दर्शन देकर कृतार्थ किया है। श्री हनुमान जी ने उनसे पता पूछकर अशोकवाटिका में माता सीता का दर्शन किया। अशोकवाटिका विध्वंस और अक्षयकुमार के वध के अपराध में रावण हनुमान जी को प्राणदण्ड देना चाहता था। उस समय विभीषण ने ही उसे दूत को अवध्य बताकर हनुमान जी को कोई और दण्ड देने की सलाह दी। रावण ने हनुमान जी की पूँछ में आग लगाने की आज्ञा दी और अशोक वाटिका तथा विभीषण के मन्दिर समान घर को छोड़कर सम्पूर्ण लंका जलकर राख हो गयी। भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई कर दी। विभीषण ने पुन: सीता को वापस करके युद्ध की विभीषिका को रोकने की रावण से प्रार्थना की। इस पर रावण ने इन्हें लात मारकर निकाल दिया। सभी राजदरबारी तथा मेघनाद हसने लगे तब विभीषण बोले की ये तुम नहीं तुम्हारा काल तुम्हारे सर पर चढ़ के हँस रहा है | अपनी माता कैकसी से परामर्श करने के पश्चात ये श्री राम के शरणागत हुए। श्री राम ने पहली ही भेंट में उन्हें लंकापति कहकर पुकारा तो वह आश्चर्य चकित रह गए | प्रभु ने अपने भक्त को पहली नज़र में पहचाना तथा भक्त ने भी जाना की वह कितने कृपालु हैं | विभीषण ने अगर ऐसे दयालु स्वामी के लिए भातृद्रोह किया तो उसमे गलत क्या है | रावण ने तो लात मारकर खुद ही अपने भाई को निकाला फिर तो पहला दोष रावण का ही है | रावण ही क्या उसके भतीजे इंद्रजीत ने भी कभी अपने चाचा का सम्मान नहीं किया तथा लंका में सबने उसका तिरस्कार ही किया | ऐसे में अगर वह अधर्म को त्याग कर धर्म का साथ ना देता तो क्या करता |

एक सच्चा भक्त कब तक अपने प्रभु तथा उनकी भार्या सीता जी का अपमान सहता क्यूंकि विभीषण जैसे धर्मात्मा को तो भक्ति के सिवा कुछ आता ही नहीं था | एक राम भक्त का अपमान हमारे प्रभु का ही अपमान है लेकिन बहुत लोग अज्ञानवश ऐसा करते रहे हैं | 

When Ravana killed Sita, Vibhishan advised Sita to return Sita to Sri Rama, calling the alien woman's haranas a great sin. But Ravana paid no attention to him. Sri Hanuman ji came to Lanka searching for Sita. He saw the house of Vibhishana inscribed with Sri Ramnam. Tulsi trees were planted around the house. It was time before sunrise, at the same time Vibhishan ji's sleep was disturbed while remembering Shri Ram's name. Hanuman ji was surprised to see Shree Rambhakta in the city of demons. The two Rambhaktas got together. Vibhishan Bhav became enamored by seeing Shri Hanuman ji. It seemed to him that Shri Rama as Shri Ramdoot has shown his gratitude by giving him darshan. Shri Hanuman ji asked for his address and gave his gratitude by giving darshan of Mata Sita in Ashoka Vatika. Shri Hanuman Ji asked her address and saw Mata Sita in Ashokwatika. Ravana wanted to kill Hanuman ji in the crime of Ashokwatika demolition and the murder of Akshaykumar. At that time, Vibhishan advised him to punish Hanuman ji by telling him the messenger was impracticable. Ravana ordered Hanuman ji to set fire to the tail and the whole of Lanka became ashes by leaving the house like Ashoka Vatika and Vibhishan's temple. Lord Sri Rama marched on Lanka. Vibhishana again returned to Sita and prayed to Ravana to stop the catastrophe of the war. On this Ravana kicked them out. When all the courtiers and Meghnad started laughing, Vibhishan said that it is not you but your time is laughing by climbing on your head. After consulting with his mother Kaikasi, he took refuge in Shri Ram. Shri Rama called him as a Lankapati on the very first meeting, and he was surprised. God recognized his devotee at first sight and the devotee also knew how kind he is. If Vibhishan has committed treason to such a merciful master, what is wrong with him? Ravana kicked and pulled out his brother on his own, and then the first blame is for Ravana. Did Ravana not even his nephew Indrajit ever respect his uncle and everyone in Lanka despised him. In such a situation, what would he do if he did not renounce iniquity and support religion?
How long did a true devotee bear the insult of his lord and his gentleman Sita ji, because a god like Vibhishan did not know anything except devotion. Insulting a Ram devotee is an insult to our Lord, but many people have been doing this in ignorance


 
अनेक प्रकार से समय समय पर प्रभु राम की सहायता की तथा अपने अर्जित  भक्ति के वरदान के अनुरूप ही कार्य किये |विभीषण की पत्नी गन्धर्व कन्या सरमा थी और पुत्री का नाम त्रिजटा था | त्रिजटा अशोक वाटिका में मुख्य पद पर थी तथा अपने पिता की तरह राम भक्त थी | अशोक वाटिका में देवी सीता को कभी भी त्रिजटा ने हतोत्साहित नहीं होने दिया |  विभीषण का एक गुप्तचर था, जिसका नाम 'अनल' था। उसने पक्षी का रूप धारण कर लंका जाकर रावण की रक्षा व्यवस्था तथा सैन्य शक्ति का पता लगाया और इसकी सूचना भगवान श्रीराम को दी थी। विभीषण के गुप्तचरों ने ही इंद्रजीत के यज्ञ के बारे में राम-लक्ष्मण को अवगत कराया | लक्ष्मण विभीषण की अगुवाई में ही मेघनाद का वध कर सके | राम -रावण युद्ध के समय भी जब रावण के सर बार बार कट के फिर जुड़ जाने लगे तब विभीषण ने ही भगवान् राम को रावण की नाभि में अग्नि बाण मारने को कहा ताकि उसकी नाभि में मौजूद अमृत कुंड सूख जाए | रावण सपरिवार मारा गया। भगवान श्री राम ने विभीषण को लंका का नरेश बनाया और विभीषण भी भगवान् राम के साथ पुष्पक विमान में बैठ कर अयोध्या आए | भगवान् राम के राजतिलक में वह भी शामिल हुए | विभीषण जैसा निर्भीक राम भक्त और कौन होगा जो लंका में रहते हुए भी नारायण जाप में लगे रहते थे | रावण के दरबार में भी सत्य कहने से नहीं चुके यह तो रावण का अभिमान ही था जो उसे ले डूबा विभीषण तो एक निमित्त मात्र है | विभीषण ने वही किया जो एक भक्त को करना चाहिए था उसने पूर्ण समर्पण से भगवान् राम का साथ दिया | 

 In many ways, he helped Lord Rama from time to time and acted according to his gift of devotion. Vibhishan's wife Gandharva was the daughter of Sarma and daughter's name was Trijata. Trijata was in the main position in Ashoka Vatika and Ram was a devotee like her father. In the Ashoka Vatika, the Goddess Sita was never discouraged by the Trijata. Vibhishan had a detective named 'Anal'. Taking the form of a bird, he went to Lanka and discovered Ravana's defense system and military power and gave information to Lord Shri Ram. Vibhishan's spies informed Rama-Laxman about Indrajit's yajna. Lakshman was able to kill Meghnad under the leadership of Vibhishan. Even during the Rama-Ravana war, when Ravana's head started to be re-inserted again and again, Vibhishan asked Lord Rama to fire fire arrows in Ravana's navel so that the nectar pool in his navel would dry up. Ravana's family was killed. Lord Sri Rama made Vibhishan the king of Lanka and Vibhishan also came to Ayodhya with Lord Rama in a Pushpak plane. He also joined the coronation of Lord Rama. Who else would be a fearless Rama devotee like Vibhishan, who, while living in Lanka, used to be engaged in chanting Narayana. Even in the court of Ravana, who had not told the truth, it was Ravan's pride that took him away and Vibhishan is just an instrument. Vibhishan did what a devotee should have done, he supported Lord Rama with complete dedication.

मंगलवार, 9 जून 2020

राजा जनक (Raja Janak)

|| जय सिया राम || 
 
 
|| राजा जनक || 


राजा जनक का असली नाम सीरध्वज था | जनकपुरी के राजा होने के कारण इनका नाम राजा जनक कहलाया | सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा उर्मिला हुईं जिनका विवाह, राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए। श्रीमद्भागवत में दी हुई जनकवंश की सूची कुछ भिन्न है, परंतु सीरध्वज के योगिराज होने में सभी ग्रंथ एकमत हैं। इनके अन्य नाम 'विदेह' अथवा 'वैदेह' तथा 'मिथिलेश' आदि हैं। मिथिला राज्य तथा नगरी इनके पूर्वज निमि के नाम पर प्रसिद्ध हुए।
 
The real name of King Janak was Sirdhavaj. Due to being the king of Janakpuri, he was called Raja Janak. Sirdha and Urmila were the two daughters of Sirdhwaj who were married to Rama and Lakshmana. The girls of Kushadhwaja were Mandvi and Shrutikirti, who were married to Bharata and Shatrughna. The list of Janaka dynasty given in Srimad Bhagwat is slightly different, but all the texts are unanimous in the belief that Sirdhvaj is a Yogiraj. Their other names are 'Videha' or 'Vaideh' and 'Mithilesh' etc. Mithila state and city became famous in the name of their ancestor Nimi.

जनक और याज्ञवल्क्य का बृहदारण्यक उपनिषद् में भी उल्लेख हुआ है, किंतु वहाँ याज्ञवल्क्य शिष्यत्व छोड़कर गुरु का स्थान प्राप्त कर लेते हैं और स्वयं जनक उनसे परलोक, ब्रह्म और आत्मा के विषय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों तथा शांखायन आरण्यक से यह तो सिद्ध होता ही है कि जनक विदेह और याज्ञवल्क्य समकालीन थे, यह भी ज्ञात होता है कि श्वेतकेतु आरुणेय और काशी के प्रसिद्ध दार्शनिक राजा अजातशत्रु भी उन्हीं के समय में हुए थे। एक विद्वान् ने काशी के अजातशत्रु के मगध के अजातशत्रु से मिलाते हुए जनक का समय ई.पू. छठी शती में निश्चित करने का प्रयत्न किया है, जो स्पष्टत: अस्वीकार्य है। ब्राह्मणों और जनक का उल्लेख करनेवाले उन प्राचीन उपनिषदों का समय निश्चय ही बुद्ध युग के बहुत पूर्व था। अत: जनक को भी उस युग के पूर्व का ही मानना होगा, किंतु उनका ठीक समय सफलतापूर्वक निश्चित नहीं किया जा सकता।

Janaka and Yajnavalkya are also mentioned in the Brihadaranyaka Upanishad, but there Yajnavalkya leaves the discipleship and takes the place of Guru and Janaka himself learns about the hereafter, Brahma and Atma. From the Satapatha Brahmins, Brihadaranyakas and Kaushitaki Upanishads and Shankhayan Aranyakas, it is proven that Janaka Videha and Yajnavalkya were contemporaries, it is also known that Shvetketu Arunayya and the famous philosopher King Ajatashatru of Kashi were also in their time. A scholar, while shaking with Ajatashatru of Magadha of Ajatshatru of Kashi, was born in BC. Have tried to make sure in the sixth century, which is clearly unacceptable. The time of those ancient Upanishads referring to Brahmins and Janaka was certainly long before the Buddha era. Therefore, Janak also has to believe before that era, but his exact time cannot be successfully determined.

राजा जनक के गुरु अष्टावक्र थे | राजा जनक आत्मज्ञानी तथा महान वेदों के ज्ञाता थे | राजा जनक तथा गुरु अष्टावक्र के बीच जो वार्तालाप हुआ उसे ही अष्टावक्र गीता कहा जाता है | इस महान वार्तालाप के बाद ही राजा जनक को अपने जिज्ञासु मन के प्रश्नो के उत्तर मिले तथा आत्मज्ञान प्राप्त हुआ|  मिथिला बहुत भाग्यशाली थी जो उन्हें राजा जनक जैसे शासक मिले | राजा जनक को सीता जी के समान राम भी उन्हे बहुत प्रिय थे | 

King Janaka's guru was Ashtavakra. King Janaka was a spiritual and knowledgeable of the great Vedas. The conversation between King Janaka and Guru Ashtavakra is called the Ashtavakra Gita. Only after this great conversation, King Janak got answers to the questions of his inquisitive mind and attained enlightenment. Mithila was very lucky to have a ruler like King Janak. King Janaka loved Rama like Sita ji.

रविवार, 7 जून 2020

कुंभकरण (Kumbhkarna)


||जय सिया राम || 
 
 
कुम्भकर्ण

कुम्भकर्ण ऋषि व्रिश्रवा और राक्षसी कैकसी का पुत्र तथा लंका के राजा रावण का छोटा भाई था। कुम्भ अर्थात घड़ा और कर्ण अर्थात कान, बचपन से ही बड़े कान होने के कारण इसका नाम कुम्भकर्ण रखा गया था। यह विभीषण और शूर्पनखा का बड़ा भाई था। बचपन से ही इसके अंदर बहुत बल था, तथा खाता इतना था  कि एक बार में यह जितना भोजन करता था उतना कई नगरों के प्राणी मिलकर भी नहीं कर सकते थे। कुम्भकर्ण अपनी निद्रा और अत्‍यधिक भोजन करने की प्रवृत्ति के लिए जाना जाता था| रामायण के अनुसार कुंभकरण भले ही दैत्‍य था, लेकिन वह बेहद बुद्धिमान, बहादुर धर्मज्ञाता , बलवान और निष्‍ठावान था. यही वजह है कि देवताओं के राजा इंद्र को  भी उसकी शक्तियों से डर लगता था | खर, दूषण, कुम्भिनी, अहिरावण और कुबेर कुंभकरण के सौतेले भाई थे।कुंभकर्ण की पत्नी वरोचन की कन्या वज्रज्वाला थीं। उसकी एक दूसरी पत्नी का नाम कर्कटी था। कुंभपुर के महोदर नामक राजा की कन्या तडित्माला से भी कुंभकर्ण का विवाह हुआ। कुंभकर्ण के एक पुत्र का नाम मूलकासुर था जिसका वध माता सीता ने किया था। दूसरे का नाम भीम था। कहते हैं कि इस भीम के कारण ही भीमाशंकर नामक ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई थी।
 
Kumbhakarna was the son of sage Vrishrava and the demonic Kaikasi and younger brother of Ravana, the king of Lanka. Kumbh means pitcher and Karna means ear, it was named Kumbhakarna due to having large ears since childhood. He was the elder brother of Vibhishan and Shurpanakha. Since childhood, there was a lot of force inside it, and the food was so much that even the food of many cities could not do it together in one meal. Kumbhakarna was known for his sleep and tendency to overeat. According to the Ramayana, Kumbhakaran was a monster, but he was very intelligent, brave theologian, strong and loyal. This is the reason why Indra, the king of the gods, was afraid of his powers. Khar, Dushan, Kumbhini, Ahiravana and Kubera were the half brothers of Kumbhakaran. Kumbhakarna's wife was Vajrajwala, the daughter of Varochan. His second wife's name was Kirkati. Kumbhakarna was also married to Taditmala, the daughter of a king named Mahodar of Kumbhapur. Kumbhakarna had a son named Moolakasura who was slaughtered by Mother Sita. The other name was Bhima. It is said that it was due to this Bhima that a Jyotirlinga named Bhimashankar was established.
 
 अपने भाइयों रावण और विभिषण के साथ कुंभकरण ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्‍या की थी. इन्द्र आदि देवताओं ने ब्रह्मा तथा शंकर जी से विनती की इन राक्षसों को सोच विचार कर ही वरदान दें | इसके बाद शिव जी ने और ब्रह्मा जी ने विशालकाय कुम्भकर्ण को देखकर सोचा कि यह अगर रोज भोजन करेगा तो पृथ्वी को नाश हो जायेगा।  तपस्‍या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्माजी ने उससे वर मांगने के लिए कहा तभी मां सरस्‍वती उसकी जिह्वा पर जाकर बैठ गईं|  फिर क्‍या था उसे मांगना तो था 'इंद्रासन' लेकिन देवी सरस्‍वती के बैठे होने के कारण वह 'निद्रासन' मांग बैठा|

Kumbhakaran, along with his brothers Ravana and Vibhishana, did hard penance to please Brahma. The Gods of Indra and others pleaded with Brahma and Shankar ji to give blessings to these demons only after thinking. After this, Lord Shiva and Brahma Ji, seeing the giant Kumbhakarna, thought that if it would eat every day, the earth would be destroyed. Pleased with penance, when Lord Brahma asked him to ask for a bride, then mother Saraswati sat on his tongue. Then what was it that he had to ask for 'Indrasana' but due to the sitting of Goddess Saraswati, he sat asking for 'sleepless'.


ब्रह्मा के वरदान से कुंभकरण छह-छह महीने सोता रहता था| छह महीने लगातार सोने के बाद जब वह उठता था तो उसे इतनी ज्‍यादा भूख लगी रहती थी कि उसके सामने जो कुछ भी आता था वो उसे खा जाता था, चाहे वो इंसान ही क्‍यों न हों|
जब रावण युद्ध के मैदान में गया तब उसे श्री राम और उनकी सेना के सामने शर्मिंदा होना पड़ा. तब रावण ने फैसला किया कि मुश्किल की इस घड़ी में उसे अपने भाई कुंभकरण का साथ चाहिए. लेकिन उस वक्‍त कुंभकरण सो रहा था. उसे नींद के बीच से उठाना इतना आसान नहीं था. उसे उठाने के लिए अनेक तरह के यत्‍न किए गए. लेकिन वह तब भी नहीं उठा. आखिरकार उसके ऊपर एक हजार हाथी चलवाए गए
विभन्न प्रक्रार के व्यंजन , मदिरा तथा भैंसे उसके पास लाकर रख दिए गए | भोजन की सुंगंध से वह उठा और उठते ही अनेक भैसे सैकड़ो घड़े , मदिरा और वयंजनो को खा गया | उसके बाद क्रोधित हुआ की उसको समय से पहले क्यों जगाया गया | 
कुंभकरण को जब राम-रावण युद्ध के बारे में पता चला तब उसने अपने भाई को समझाने की बहुत कोशिश की. उसने रावण को बताया कि श्री राम साक्षात् नारायण के अवतार हैं और ऐसे में उनसे युद्ध में नहीं जीता जा सकता. वहीं, सीता मां लक्ष्‍मी का रूप हैं इसलिए उनका हरण करने का विचार भी मन में कैसे आ सकता है. कुंभकरण ने रावण को बताया कि वह गलत कर रहा है और उसे अपना हठ  छोड़कर सीता को श्रीराम के पास वापस भेज देना चाहिए. रावण ने कुंभकरण की एक न सुनी. रावण ने कुंभकरण को बताया कि वह उसका भाई है ऐसे में उसका धर्म उसकी तरफ से युद्ध के मैदान में जाना है. यह जानते हुए भी रावण गलत है इसके बावजूद कुंभकरण ने उसकी बात मानी और वह अपने भाई के प्रति निष्‍ठा का पालन करते हुए युद्ध लड़ने चला गया. 

Kumbhakaran used to sleep for six months with the blessings of Brahma. When he woke up after sleeping for six months continuously, he used to get so hungry that whatever he came in front of him would eat him, even if he was a human being. When Ravana went to the battlefield, he had to be embarrassed in front of Shri Ram and his army. Then Ravana decided that in this hour of difficulty he should support his brother Kumbhakaran. But Kumbhakaran was sleeping at that time. It was not so easy to lift him from the middle of sleep. Various efforts were made to lift it. But he still did not get up. Eventually a thousand elephants were carried over him Various types of dishes, wines and buffaloes were brought to him. He woke up from the smell of food and as soon as he got up he ate hundreds of buffaloes, wines and dishes. After that he was angry as to why he was awakened ahead of time. When Kumbakaran came to know about the Ram-Ravana war, he tried a lot to convince his brother. He told Ravana that Shri Rama is the incarnation of Sakshat Narayan and in such a situation he cannot be won in battle. At the same time, Sita is the form of Maa Lakshmi, so how can the idea of ​​killing her come to mind. Kumbhakaran tells Ravana that he is doing wrong and that he should leave his stubbornness and send Sita back to Shri Ram. Ravana did not listen to Kumbhakaran. Ravana told Kumbhakaran that he is his brother, so his religion has to go to the battlefield on his behalf. Despite knowing that Ravana is wrong, Kumbhakaran obeyed him and he went to fight the war, following his loyalty to his brother.
 
कुंभकरण ने रण क्षेत्र में पहुंचकर श्री राम की वानर सेना को कुचल दिया, श्री हनुमान को चोटिल कर दिया और सुग्रीव को मूर्छित कर उसे बंदी बना लिया. जब वह सुग्रीव को ले जा रहा था तभी श्री राम ने उसका वध कर दिया. रामायण के अनुसार कुंभकरण के दो बेटे कुंभ और निकुंभ थे. उसके बेटों ने राम के खिलाफ युद्ध लड़ा और वे भी मारे गए. 

Kumbhakaran reached the battlefield and crushed Shree Rama's monkey army, injured Shree Hanuman and imprisoned Sugriva. While he was taking Sugriva, Shri Ram killed him. According to Ramayana, Kumbhakaran had two sons, Kumbha and Nikumbh. His sons fought a war against Rama and were also killed.


वैसे रामायण के ज्‍यादातर चरित्र ऐसे हैं जो या तो अच्‍छाई के साथ हैं या बुराई के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं. लेकिन कुंभकरण का चरित्र अधिक जटिल है|  वह नीति-अनीति, धर्म-अधर्म का भेद जानता है|  वह कभी खुलकर रावण का विरोध नहीं करता, हालांकि वह रावण को समय-समय पर बहुत समझाता है.| यह जानते हुए भी कि रावण गलत है तब भी वह उसका साथ देता है|  रण क्षेत्र में जब कुंभकरण और विभिषण का आमना-सामना होता है तब दोनों बेहद भावुक हो उठते हैं|  विभिषण अपने बड़े भाई कुंभकरण को अधर्म का साथ छोड़कर श्री राम की शरण लेने के लिए कहता है|  कुंभकरण उसकी अवहेलना करते हुए उसे ही यह कहते हुए अधर्मी बता देता है कि उसने अपने भाई को धोखा दिया है|  जब दोनों भाई एक-दूसरे को नहीं समझा पाते और विदा लेते हैं तब कुंभकरण की आंखों से आंसू बहने लगते हैं| 
 इतना ही नहीं कुंभकरण को यह भी पता था कि युद्ध का क्‍या परिणाम होगा| अपने भाई विभिषण से अंत में वह यही कहता है कि उनके मरने के बाद पूरे विधि-विधान से रावण और उसका अंतिम संस्‍कार करे|  कुंभकरण कहता है कि इस युद्ध में विभिषण ही जिंदा बचेगा, जबकि रावण और उसकी मौत हो जाएगी. विभीषण को ही सबका अंतिम संस्कार करना होगा | 

 
By the way, most of the characters of Ramayana are those who are either with good or appear to be in favor of evil. But the character of Aquarius is more complex. He knows the difference between ethics, immorality, religion and unrighteousness. He never openly opposes Ravana, although he explains Ravana a lot from time to time. Even after knowing that Ravana is wrong, he still supports him. When Kumbhkaran and Vibhishan are confronted in the battle field, both of them get very emotional. Vibhishan asks his elder brother Kumbhakaran to take refuge with Shree Rama and take shelter. Kumbhakaran disregards him and tells him to be unrighteous, saying that he has cheated his brother. When both brothers are unable to explain to each other and leave, then tears start flowing from the eyes of Aquarius. Not only this, Kumbhkaran also knew what the outcome of the war would be. In the end he says to his brother Vibhishan that after his death, Ravana and his last cremation should be done with complete law. Kumbhakaran says that in this war, Vibhishan will remain alive, while Ravana and his death will die. Vibhishan will have to perform the last rites of all.

शनिवार, 6 जून 2020

मेघनाद (इंद्रजीत)

|| Jai Shree Raam ||
 
 
 
मेघनाद (इंद्रजीत)
 
 



 
मेघनाद अथवा इंद्रजीत रावण के पुत्र का नाम है। मेघनाद का अर्थ है बादलों के  समान गरजने वाला , जन्म लेते ही मेघनाद ने ऐसा अट्हास किया कि उसका नाम इंद्रजीत पड़ गया |अपने पिता रावण की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इंद्रजीत रखा था। आदिकाल से अब तक यही एक मात्र ऐसा योद्धा है जिसे अतिमहारथी की उपाधि दी गई है। इसका नाम रामायण में इसलिए विशेष रूप से उल्लेखित है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जो की ब्रह्माण्ड अस्त्र, वैष्णव अस्त्र तथा पाशुपात अस्त्र के धारक कहे जाते हैं। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर तथा त्रिदेवों द्वारा कई अस्त्र- शस्त्र एकत्र किए। स्वर्ग में देवताओं को हरा कर उनके अस्त्र-शस्त्र पर भी अधिकार कर लिया। 
सती सुलोचना से विवाह के पश्चात मेघनाद और भी शक्तिशाली हो गया था क्यूंकि सुलोचना परम शिव भक्तिनी थी तथा वासुकि देव की पुत्री होने के कारण अनेक सिद्धियों को प्राप्त कर चुकी थी जो उसके पति मेघनाद को हमेशा सहायक सिद्ध होती थी |

मेघनाद पितृभक्त पुत्र था। उसे यह पता चलने पर की राम स्वयं भगवान है तथा लक्ष्मण स्वयं शेषनाग फिर भी उसने पिता का साथ नही छोड़ा। मेघनाद की भी पितृभक्ति प्रभु राम के समान अतुलनीय है। जब उसकी माँ मन्दोदरी ने उसे यह कहा कि मनुष्य मुक्ति की ओर अकेले जाता है तब उसने कहा कि पिता को ठुकरा कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिले तो मैं ठुकरा दूँगा। जैसा सर्वविदित है मेघनाद ने घनघोर युद्ध किया और राम तथा लक्ष्मण को नाकों चने चबवा दिए |

मेघनाद रावण और मंदोदरी का सबसे ज्येष्ठ पुत्र था । क्योंकि रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी भी था जिसे एक ऐसा पुत्र चाहिए था जो कि अजर,अमर और अजेय हो,इसलिए उसने सभी ग्रहों को अपने पुत्र कि जन्म-कुंडली के 11-वें (लाभ स्थान) स्थान पर रख दिया ,परंतु रावण कि प्रवृत्ति से परिचित शनिदेव 11- वें स्थान से 12- वें स्थान (व्यय/हानी स्थान) पर आ गए जिससे रावण को मनवांछित पुत्र प्राप्त नहीं हो सका। इस बात से क्रोधित रावण ने शनिदेव के पैर पर प्रहार किया था । इसलिए शनि कि चाल को टेढ़ी कहा जाता है | रावण ने शनिदेव को कैद भी कर लिया जिन्हें बाद में लंकादहन के समय हनुमान जी ने छुड़वा दिया |

मेघनाद के गुरु असुर-गुरु शुक्राचार्य थे। किशोरावस्था (12 वर्ष) कि आयु होते-होते इसने अपनी कुलदेवी निकुंभला के मंदिर में अपने गुरु से दीक्षा लेकर कई सिद्धियां प्राप्त कर लीं । एक दिन जब रावण को इस बात का पता चला तब वह असुर-गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पहुंचा । उसने देखा कि असुर-गुरु शुक्राचार्य मेघनाद से एक अनुष्ठान करवा रहे हैं । जब रावण ने पूछा कि यह क्या अनुष्ठान हो रहा है, तब आचार्य शुक्र ने बताया कि मेघनाद ने मौन व्रत लिया है । जब तक वह सिद्धियों को अर्जित नहीं कर लेगा, मौन धारण किए रहेगा । अंततः मेघनाद अपनी कठोर तपस्या में सफल हुआ और भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए । भगवान शिव ने उसे कई सारे अस्त्र-शस्त्र, शक्तियां और सिद्धियां प्रदान की । परंतु उन्होंने मेघनाद को सावधान भी कर दिया कि कभी भूल कर भी किसी ऐसे ब्रह्मचारी का दर्शन ना करे जो 12 वर्षों से कठोर ब्रह्मचर्य और तपश्चार्य का पालन कर रहा हो । इसीलिए भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी से 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करवाई थी ।
वरदान पाने के बाद मेघनाद एक बार फिर से असुर गुरु शुक्राचार्य की शरण में गया और उनसे पूछा उसे आगे क्या करना चाहिए । तब असुर-गुरु शुक्राचार्य ने उसे सात महायज्ञों की दीक्षा दी जिनमें से एक महायज्ञ भी करना बहुत कठिन है । यह भी कहा जाता है कि मेघनाद का नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जोकि आदिकाल से इन महायज्ञ को करने में सफल हो पाए हैं ।
ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीविष्णु जी, रावण पुत्र मेघनाद और सूर्यपुत्र कर्ण के अतिरिक्त आदिकाल से ऐसा कोई नहीं है जो वैष्णव यज्ञ कर पाया हो ।
देवासुर संग्राम के समय जब रावण ने सभी देवताओं को इंद्र समेत बंदी बना लिया था और कारागार में डाल दिया था, उसके कुछ समय बाद एक समय सभी देवताओं ने मिलकर कारागार से भागने का निश्चय किया और साथ ही साथ रावण को भी सुप्त अवस्था में अपने साथ बंदी बनाकर ले गए । परंतु मेघनाद ने पीछे से अदृश्य रूप में अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर देवताओं पर आक्रमण किया । देव सेनापति भगवान कार्तिकेय ठीक उसी समय देवताओं की रक्षा के लिए आ गए परंतु मेघनाद को नहीं रोक पाए । मेघनाद ने न केवल देवताओं को पराजित किया अपितु अपने पिता के बंधन खोलकर और इंद्र को अपना बंदी बनाकर वापस लंका ले आया । जब रावण जागा और उसे सारी कथा का ज्ञान हुआ तब रावण और मेघनाद ने यह निश्चय किया इंद्र का अंत कर दिया जाये ,परंतु ठीक उसी समय भगवान ब्रह्मा जी लंका में प्रकट हुए और उन्होंने मेघनाद को आदेश दिया कि वह इंद्र को मुक्त कर दे । मेघनाद ने यह कहा कि वह कार्य केवल तभी करेगा जब ब्रह्मदेव उसे अमरत्व का वरदान दे ,परंतु ब्रह्मदेव ने यह कहा यह वरदान प्रकृति के नियम के विरुद्ध है परंतु वह उसे यह वरदान देते हैं कि जब आपातकाल में कुलदेवी निकुंभला का तांत्रिक यज्ञ करेगा तो उस एक दिव्य रथ प्राप्त होगा और जब तक वह उस रथ पर रहेगा तब तक कोई भी ना से परास्त कर पाएगा और ना ही उसका वध कर पाएगा । परंतु उसे एक बात का ध्यान रखना होगा कि जो उस यज्ञ का बीच में ही विध्वंस कर देगा वही उसकी मृत्यु का कारण भी होगा । और साथ ही साथ ब्रह्मदेव ने यह वरदान भी दिया कि आज से मेघनाद को इंद्रजीत कहा जाएगा जिससे इंद्र की ख्याति सदा सदा के लिए कलंकित हो जाएगी ।
जब भगवान श्री राम ने हनुमान जी को माता सीता की खोज में भेजा और हनुमान जी जब लंका में अशोक वाटिका में माता सीता से मिले, उसके उपरांत हनुमान जी ने अशोक वाटिका को तहस-नहस करना आरंभ कर दिया। रावण के सारे सैनिक एक एक करके या तो वीरगति को प्राप्त हो गए या तो पराजित होकर भागने लगे। जब रावण को इसी सूचना मिली तो उसने पहले सेनापति जांबुमालि और उसके उपरांत अपने पुत्र राजकुमार अक्षय कुमार को भेजा परंतु दोनों ही वीरगति को प्राप्त हो गए। अंत में रावण ने अपने पुत्र युवराज इंद्रजीत को अशोक वाटिका भेजा। जब इंद्रजीत और हनुमान जी के बीच युद्ध आरंभ हुआ तब इंद्रजीत ने अपनी सारी शक्ति अपनी सारी माया, अपनी सारी तांत्रिक विद्या, अपने सारे अस्त्र-शस्त्र सब प्रयोग करके देख लिए परंतु वह सब के सब निष्फल हो गए। अंत में इंद्रजीत ने हनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र का मान रखने के लिए उसमें बंध जाना स्वीकार कर लिया और उसके उपरांत वे दोनों रावण के दरबार की ओर चल पड़े।

कुंभकर्ण के अंत के बाद रावण के पास अब केवल एक उसका पुत्र इंद्रजीत ही रह गया था। उसने इंद्रजीत को आदेश दिया कि वह युद्ध की ओर कूच करे ।

 

इंद्रजीत ने अपने पिता के आदेश पर सबसे पहले कुलदेवी माता निकुंभला का आशीर्वाद लिया और उसके उपरांत हुआ रणभूमि की ओर चल पड़ा। जैसे ही युद्ध आरंभ हुआ एक-एक करके सारे योद्धा इंद्रजीत के हाथों या तो वीरगति को प्राप्त हो गए, या तो भागने लगे, या तो पराजित हो गए । अंत में लक्ष्मण जी और इंद्रजीत के बीच द्वंद होने लगा । जब इंद्रजीत के सारे अस्त्र विफल हो गए तो उसने अदृश्य होकर पीछे से सारी वानर सेना, भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी पर नागपाश का प्रयोग किया। तब ही हनुमान जी को एक युक्ति सूझी कि भगवान गरुण इस नागपाश को काट सकते है अतः हनुमान जी तुरंत ही गरुड़ जी को ले जाए और गरुड़ जी ने सभी को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया।

जब रावण को यह पता चला की सभी वानर सैनिक, भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी नागपाश से मुक्त हो गए हैं तो क्रोध में आकर उसने दूसरे दिन एक बार फिर इंद्रजीत को आदेश दिया कि वह एक बार फिर युद्ध-भूमि की ओर कूच करे ।

एक बार फिर अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करके माता निकुंभला का आशीर्वाद लेकर इंद्रजीत रणभूमि की ओर निकल पड़ा । इस बार उसने रणभूमि में घोषणा कि आज वह एक भी वानर सैनिक को जीवित नहीं छोड़ेगा और कम से कम दोनों भाइयों में से (अर्थात राम जी और लक्ष्मण जी में से) किसी एक को तो मार ही देगा । इसी उद्घोषणा के साथ वह पहले दिन से भी कहीं अधिक भयंकरता के साथ युद्ध करने लगा । उसकी इस ललकार को सुनकर लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम की आज्ञा लेकर उसका सामना करने चल पड़े । दोनों के बीच भयंकर द्वंद छिड़ गया, परंतु दोनों ही टस से मस होने के लिए तैयार नहीं थे । जब लक्ष्मण जी मेघनाद पर भारी पड़ने लगे, तब मेघनाद को एक युक्ति सूची और वह अदृश्य होकर माया युद्ध करने लगा । इस पर लक्ष्मण जी उस पर ब्रह्मास्त्र चलाने की आज्ञा भगवान श्रीराम से लेने लगे । परंतु भगवान श्रीराम ने इसे निति-विरुद्ध कहकर रोक दिया और फिर एक बार लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम की आज्ञा लेकर दोबारा से मेघनाद के साथ युद्ध करने लगे ।
माया युद्ध में भी जब लक्ष्मण जी इंद्रजीत पर भारी पड़ने लगे और दूसरी ओर वानर-सेना राक्षस-सेना पर भारी पड़ने लगी, तो क्रोध में आकर उसने लक्ष्मण जी पर पीछे से शक्ति अस्त्र का प्रयोग किया और सारी वानर सेना पर ब्रह्मशिरा अस्त्र का प्रयोग किया, जिससे कि कई वानर सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए, जो कि लगभग पूरा का पूरा वानर वंश था (स्रोत श्रीमद् वाल्मीकि रामायण)। जब हनुमान जी वानर सेना को बचाने दौड़े तो इंद्रजीत ने उन पर भी वैष्णव अस्त्र का प्रयोग किया, परंतु उन्हें भगवान श्रीब्रह्मा जी का वरदान होने के कारण कुछ नहीं हुआ और वे तुरंत ही सारे वानर सैनिकों और लक्ष्मण जी को बचाने निकल पड़े । इधर दूसरी ओर मेघनाद घायल लक्ष्मण जी उठाने का प्रयत्न करने लगा, परंतु उन्हें हिला भी नहीं सका । इस पर हनुमान जी ने यह कहा कि वह उन्हें उठाने का प्रयत्न कर रहा है जो साक्षात भगवान शेषनाग अनन्त के अवतार हैं, उस जैसे पापी से नहीं उठेंगे। इतना कहकर उन्होंने मेघनाद पर प्रहार किया जिससे मेघनाथ दूर जाकर गिरा और हनुमान जी लक्ष्मण जी को बचा कर ले आए । उसके बाद सुषेण वैद्य के कहने पर हनुमान जी संजीवनी बूटी ले आए जिससे लक्ष्मण जी का उपचार हुआ और वे बच गए ।
 
जब रावण को यह पता चला के लक्ष्मण जी सकुशल है तो इस बार उसने फिर से इंद्रजीत को यह आदेश दिया कि वह तुरंत ही माता निकुंभला का तांत्रिक यज्ञ करे और उनसे वह दिव्य रथ प्राप्त करें । जब गुप्तचरों से इस बात का विभीषण जी को पता चला तो उन्होंने तुरंत ही भगवान श्री राम को सारी सूचना दी । भगवान श्री राम ने विभीषण जी को आदेश दिया कि वह तुरंत ही उसका यज्ञ भंग कर दें । विभीषण जी की सहायता से, एक गुप्त मार्ग से सभी वानर सैनिक उस गुफा में पहुंच गए जहां पर इंद्रजीत यज्ञ कर रहा था । उस गुफा में घुस कर वानर सैनिकों ने उसका यज्ञ भंग कर दिया और उसे बाहर निकलने पर विवश कर दिया । क्रोधित इंद्रजीत ने जब देखा विभीषण जी वानर सेना को लेकर के आए हैं तो क्रोध में आकर उसने विभीषण जी पर यम-अस्त्र का प्रयोग किया । परंतु यक्षराज कुबेर ने पहले ही लक्ष्मण जी को उसकी काट बता दी थी । लक्ष्मण जी ने उसी का प्रयोग करके यम- अस्त्र को निस्तेज कर दिया । इस पर इंद्रजीत को बहुत क्रोध आया और उसने एक बहुत ही भयानक युद्ध लक्ष्मण जी से आरंभ कर दिया, परंतु उसमें भी जब लक्ष्मण जी इंद्रजीत पर भारी हो गए तो उसने अंतिम तीन महा अस्त्रों का प्रयोग किया जिन से बढ़कर कोई दूसरा अस्त्र इस सृष्टि में नहीं है । सबसे पहले उसने ब्रह्मांड अस्त्र का प्रयोग किया । इस पर भगवान ब्रह्मा जी ने उसे सावधान किया की यह नीति विरुद्ध है, परंतु उसने ब्रह्मा जी की बात ना मानकर उसका प्रयोग लक्ष्मण जी पर किया । परिणाम स्वरूप ब्रह्मांड अस्त्र लक्ष्मण जी को प्रणाम करके निस्तेज होकर लौट आया । फिर उसने लक्ष्मण जी पर भगवान शिव का पाशुपतास्त्र प्रयोग किया परंतु वह भी लक्ष्मण जी को प्रणाम करके लुप्त हो गया । फिर उसने भगवान विष्णु का वैष्णव अस्त्र लक्ष्मण जी पर प्रयोग किया परंतु वह भी उनकी परिक्रमा करके लौट आया ।
 
 
 
अब इंद्रजीत समझ गया लक्ष्मण जी एक साधारण नर नहीं स्वयं भगवान का अवतार है और वह तुरंत ही अपने पिता के पास पहुंचा और उसने सारी कथा का व्याख्यान दिया । परंतु रावण तब भी नहीं माना और उसने फिर से इंद्रजीत का युद्ध भूमि में भेज दिया । इंद्रजीत ने यह निश्चय किया यदि पराजय ही होनी है भगवान के हाथों वीरगति को प्राप्त होना तो सौभाग्य की बात है । और उसने फिर एक बार फिर एक महासंग्राम आरंभ किया । बड़ा भयंकर युद्ध हुआ । भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी को पहले ही समझा दिया था की इंद्रजीत एकल पत्नी व्रत धर्म का कठोर पालन कर रहा है । इस कारण से उन्हें उसका वध करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा की इंद्रजीत का शीश कटकर भूमि पर ना गिरे अन्यथा उसके गिरते ही ऐसा विस्फोट होगा की सारी सेना उस विस्फोट में समा कर नष्ट हो जाएगी । इसीलिए अंत में लक्ष्मण जी ने भगवान श्रीराम जी का नाम लेकर एक ऐसा बाण छोड़ा जिससे इंद्रजीत के हाथ और शीश कट गए और उसका शीश कटकर भगवान श्रीराम जी के चरणों में पहुंच गया ।