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मंगलवार, 9 जून 2020

राजा जनक (Raja Janak)

|| जय सिया राम || 
 
 
|| राजा जनक || 


राजा जनक का असली नाम सीरध्वज था | जनकपुरी के राजा होने के कारण इनका नाम राजा जनक कहलाया | सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा उर्मिला हुईं जिनका विवाह, राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए। श्रीमद्भागवत में दी हुई जनकवंश की सूची कुछ भिन्न है, परंतु सीरध्वज के योगिराज होने में सभी ग्रंथ एकमत हैं। इनके अन्य नाम 'विदेह' अथवा 'वैदेह' तथा 'मिथिलेश' आदि हैं। मिथिला राज्य तथा नगरी इनके पूर्वज निमि के नाम पर प्रसिद्ध हुए।
 
The real name of King Janak was Sirdhavaj. Due to being the king of Janakpuri, he was called Raja Janak. Sirdha and Urmila were the two daughters of Sirdhwaj who were married to Rama and Lakshmana. The girls of Kushadhwaja were Mandvi and Shrutikirti, who were married to Bharata and Shatrughna. The list of Janaka dynasty given in Srimad Bhagwat is slightly different, but all the texts are unanimous in the belief that Sirdhvaj is a Yogiraj. Their other names are 'Videha' or 'Vaideh' and 'Mithilesh' etc. Mithila state and city became famous in the name of their ancestor Nimi.

जनक और याज्ञवल्क्य का बृहदारण्यक उपनिषद् में भी उल्लेख हुआ है, किंतु वहाँ याज्ञवल्क्य शिष्यत्व छोड़कर गुरु का स्थान प्राप्त कर लेते हैं और स्वयं जनक उनसे परलोक, ब्रह्म और आत्मा के विषय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों तथा शांखायन आरण्यक से यह तो सिद्ध होता ही है कि जनक विदेह और याज्ञवल्क्य समकालीन थे, यह भी ज्ञात होता है कि श्वेतकेतु आरुणेय और काशी के प्रसिद्ध दार्शनिक राजा अजातशत्रु भी उन्हीं के समय में हुए थे। एक विद्वान् ने काशी के अजातशत्रु के मगध के अजातशत्रु से मिलाते हुए जनक का समय ई.पू. छठी शती में निश्चित करने का प्रयत्न किया है, जो स्पष्टत: अस्वीकार्य है। ब्राह्मणों और जनक का उल्लेख करनेवाले उन प्राचीन उपनिषदों का समय निश्चय ही बुद्ध युग के बहुत पूर्व था। अत: जनक को भी उस युग के पूर्व का ही मानना होगा, किंतु उनका ठीक समय सफलतापूर्वक निश्चित नहीं किया जा सकता।

Janaka and Yajnavalkya are also mentioned in the Brihadaranyaka Upanishad, but there Yajnavalkya leaves the discipleship and takes the place of Guru and Janaka himself learns about the hereafter, Brahma and Atma. From the Satapatha Brahmins, Brihadaranyakas and Kaushitaki Upanishads and Shankhayan Aranyakas, it is proven that Janaka Videha and Yajnavalkya were contemporaries, it is also known that Shvetketu Arunayya and the famous philosopher King Ajatashatru of Kashi were also in their time. A scholar, while shaking with Ajatashatru of Magadha of Ajatshatru of Kashi, was born in BC. Have tried to make sure in the sixth century, which is clearly unacceptable. The time of those ancient Upanishads referring to Brahmins and Janaka was certainly long before the Buddha era. Therefore, Janak also has to believe before that era, but his exact time cannot be successfully determined.

राजा जनक के गुरु अष्टावक्र थे | राजा जनक आत्मज्ञानी तथा महान वेदों के ज्ञाता थे | राजा जनक तथा गुरु अष्टावक्र के बीच जो वार्तालाप हुआ उसे ही अष्टावक्र गीता कहा जाता है | इस महान वार्तालाप के बाद ही राजा जनक को अपने जिज्ञासु मन के प्रश्नो के उत्तर मिले तथा आत्मज्ञान प्राप्त हुआ|  मिथिला बहुत भाग्यशाली थी जो उन्हें राजा जनक जैसे शासक मिले | राजा जनक को सीता जी के समान राम भी उन्हे बहुत प्रिय थे | 

King Janaka's guru was Ashtavakra. King Janaka was a spiritual and knowledgeable of the great Vedas. The conversation between King Janaka and Guru Ashtavakra is called the Ashtavakra Gita. Only after this great conversation, King Janak got answers to the questions of his inquisitive mind and attained enlightenment. Mithila was very lucky to have a ruler like King Janak. King Janaka loved Rama like Sita ji.

सोमवार, 1 जून 2020

जय कैकयी माता

 || जय सिया राम || 
 
 
 
|| जय कैकयी माता || 


रानी कैकयी राजा दशरथ की तीसरी रानी थी | वह बहुत रूपवती , गुणवती  चतुर थी | कैकयी कैकया देश के नरेश राजा अश्वपति की पुत्री थी | इनके पिता राजा अश्वपति घोड़ों के भगवान थे | रानी कैकयी के सात भाई थे|  राजा दशरथ की रानी कैकयी  के प्रति विशेष स्नेह का कारण यह भी था कि वे बहुत ही चतुर तथा साहसी सारथि भी थी | देवासुर संग्राम के समय रानी कैकयी ने राजा दशरथ के प्राण बचाए थे तथा राजा दशरथ ने प्रसन्न होकर उन्हें दो वरदान दिए लेकिन कैकयी ने कहा कि इन वारदानो को संभाल कर रख लीजिए समय आने पर मैं आपसे खुद ही मांग लूंगी | 
कैकयी का स्वभाव चतुर एवं चालाक था इसी कारण अपनी मुँह लगी दासी मंथरा के बहकावे में आसानी से गई|  देवताओं ने जब देखा कि राम राजा बन जाएंगे तो रावण आदि राक्षसों का अंत कैसे होगा? तब देवी सरस्वती ने देवताओं की विनती पर दासी मंथरा की बुद्धि फेर दी तथा मंथरा ने कई प्रकार की बातें बनाकर रानी कैकयी  को भी राजा दशरथ के विरुद्ध भड़का दिया | रानी कैकयी विधि के विधान के अनुसार उस समय साधारण स्त्री की भांति सोचने लगी कि अगर मंथरा ने जो बात कही वह सत्य ना हो जाए कहीं उनकी सौतन कोशल्या उन्हें अपने पुत्र राम के राजा बनते ही दासी ना बना दे | उस कालवश राम के प्रति उनका प्रेम भी क्षीण  होता दिखा | उन्हें श्रीराम की कोमल मृदुवाणी भी असत्य के बाणों के समान तीखी लगने लगी थी | कालवश अपने पुत्र भरत के और अपने स्वार्थ को ही अपना हितेषी मानने लगी एकदम से इतना परिवर्तन और में इसलिए ही हुआ क्योंकि वे बहुत चतुर चालाक थी तथा माता कौशल्या की तरह सीधे स्वभाव की ना होना भी उनके स्वभाव परिवर्तन का कारण बना |  
 
कैकयी माँ की ममता के बिना ही पली बड़ी थी | मंथरा ने उन्हें बचपन से ही पाला था तथा मंथरा अच्छी तरह से जानती थी कि कैसे राजविलासी  कैकयी को बहकाया जा सकता है | देवप्रेरणा होने की वजह से मंथरा इसमें सफल भी हुई तथा रानी कैकयी को अपनी बातों के अंधे कुएं में ढकेल दिया | राजविलास की मारी रानी कैकयी विलासिता के लालच में आकर अनर्थ कर बैठी और भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास राजा दशरथ के हाथों दिलवा दिया | 
 
उनकी भूल उन्हीं पर इतनी भारी पड़ी कि शेष जीवन रानी कैकयी पछताती रही|  इतिहास में वह कुटील स्त्री के रूप में जानी जाती हैं किंतु इस प्रसंग को छोड़ दिया जाए तो बाकी शेष जीवन उन्होंने पश्चाताप के अश्रुओं या पति एवं सभी राजकुमारों के प्रेम अनुरूप ही व्यवहार किया था| रानी कैकयी पर मंथरा की कही बातों का मोह तब भंग हुआ जब भरत जी  अपने नाना के यहां से लौटे|  भरत जी को भी मंथरा और कैकयी ने अपनी बातों मैं बहकाना चाहा लेकिन भक्त शिरोमणि भरत कहां उनकी बातें मानने वाले थे| भरत जी ने जब अपने पिता की मृत्यु के बारे में तथा राम जी के वनवास का सुना तो  क्रोध और दुःख से भर उठे | अपनी ही माता कैकयी का क्रोध में त्याग कर दिया किन्तु माता कौशल्या के अनुरोध पर बाद में उन्हें क्षमा कर दिया | भरत जी की धर्मपरायण बांतें सुनकर उनकी आंखों का अन्धकार भी छठ गया | उन्हें अहसास हो गया कि जब तक उन्होंने कुछ नहीं मांगा तब तक वह पटरानी थी लेकिन मांगते ही भिखारी बन गयी और सब कुछ खो दिया|  जिससे मांगा गया वही पति राजा दशरथ स्वर्ग सिधार गए और जिसके लिए मांगा वही पुत्र भरत ठोकर मार कर गया| कैकयी के ऊपर दुनिया भर के लाँछन लगे यहां तक कि कई जगह राजा दशरथ की मृत्यु के लिए भी उन्हीं को राजा का काल माना गया | 
 
चारों तरफ से जब उन्हें ठुकराया गया तब अकेले भगवान् श्री राम ही  थे जिन्होंने उनका साथ दिया तथा भरत और शत्रुघ्न को पश्चाताप की अग्नि में जलती माता कैकयी की सेवा का आदेश दिया | सर्वज्ञानी भगवान राम तो जानते ही थे कि अगर अयोध्या में राजा बनकर रह जाते तो रावण का विनाश कैसे होता | माता कैकयी ही वह मार्ग खोलने का कारण बनी जिससे वह एक साधारण राजा बनने से बचे तथा तीनो लोको के स्वामी बने | कैकयी माता ने सबके अपमान को सहा किन्तु राम जी के प्रिय मधुर वचनो ने सदा उनको शीतलता प्रदान करी | राजा दशरथ की मृत्यु तो पुत्र वियोग में ही होनी थी क्योंकि उन्हें श्रवण कुमार के वध के कारण लगे श्राप का फल उन्हे मिलना ही था फिर रानी कैकयी को क्यों दोष दिया जाता है उनका दोष केवल कितना और क्यूँ है इसका हिसाब किताब परमज्ञानी लोग भी नहीं लगा सकते किंतु अगर राम बनवास ना जाते तो धर्मपालन के उपदेश जो हम आज तक सुनते आ रहे हैं क्या हमें मिलते? इस घोर कलयुग में हमें कैसे पता चलता की मर्यादा , धर्म और आदर्श का पालन करते हुए जीवन कैसे जिया जाता है ? तुलसीदासजी द्वारा लिखित रामचरितमानस की क्या विशेषता रहती अगर श्री राम एक वनवासी , योद्धा , ज्ञानी व मर्यादा के उदाहरण हमें ना देते | माता कैकयी ने लोकनिंदा लेकर भी तो जगत कल्याण हेतु राम कथा में अपना योगदान दिया है उसकी वंदना करनी चाहिए ना की निंदा | | कहा भी गया है 'ईश्वर यत करोति शोभनम एव करोति' अर्थात ईश्वर जो भी करता है भले के लिए ही करता है |  मां कभी निंदनीय नहीं हो सकती है और माता कैकयी तो भगवान राम की प्रिय माता हैं उनका अपमान भगवान का ही अपमान है | जिस बात को भगवान राम अपने भाइयों को समझाते रहे उसे हमें भी उतना ही आदर देना चाहिए और प्रभु राम की अन्य बातों के समान ही सम्मान देना चाहिए|