|| जय सीया राम ||
|| जय श्री गणेश ||
भगवान परशुराम
परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे तथा मातृभक्त थे ।पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार भगवान् परशुराम विष्णु के छठा अवतार हैं[। उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को मध्यप्रदेश के इंदौर जिला में ग्राम मानपुर के जानापाव पर्वत में हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं तथा राम सीता विवाह प्रसंग में उन्हें बहुत क्रोधित मुनि के रूप में चित्रण किया गया है यद्यपि भगवन परशुराम बहुत ही दयावान तथा दानवीर थे । वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये इसी परशु से परशुराम जी ने भगवान् गणेश का एक दांत तोड़ डाला था और भगवान् गणेश तब से एकदन्त कहलाये । आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
भगवान राम द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने पर भगवान परशुराम राजा जनक के समारोह में क्रोधित होकर पहुंचे और उन्हें क्रोधित देख सभी राजा डर गए साथ ही कुछ खुश हो गए की अब राम जी को धनुष तोड़ने की सजा भगवान् परशुराम देंगे | राजा जनक ने उनका आदरपूर्वक सत्कार किया किन्तु वह शांत ना हुए | इस पर लक्षमण जी ने अनेको व्यंग किये किन्तु परशुराम जी ने उन्हें बालक जानकर क्षमा किया और प्रभु राम की कोमल वाणी की सराहना करते उन्होंने लक्ष्मण जी की धृष्ट्ता को ध्यान ही नहीं दिया | जब प्रभु राम ने उनके धनुष से तीर चलाया तब वह तुरंत भगवान् विष्णु के अवतार प्रभु राम को पहचान गए और उनकी जय जयकार करते हुए तपस्या के लिए चले गए |
भगवान् राम उन्हें प्रसन्न होकर उन्हें आदर सहित विदा किया | द्वापर युग में भी भगवान् परशुराम जी के गंगापुत्र भीष्म तथा कर्ण जैसे शिष्य हुए | हालाँकि कर्ण ने उनसे झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की थी फिर भी उन्होंने कर्ण को उसी समय शिक्षा भूलने का शाप ना देकर उनकी मृत्यु के समय शिक्षा को भूल जाने का शाप दिया |
अपने पिता के आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण उन्होंने पिता की आज्ञा से अपनी माता का वध किया किन्तु पिता से ही उन्हें पुनर्जिवित करने का वरदान मांग लिया | रावण को हराने वाले सहस्त्रबाहू को कुल समेत मार देने के पश्चात भगवान परशुराम ने दान में पूरी पृथ्वी को ही ब्राह्मणों को दे दिया था यहाँ तक की जब गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे उनके अस्त्र तथा शस्त्र मांगे तो भी उन्होंने कोई संकोच नहीं किया और सब कुछ दान देकर खुद तपस्या में लीन हो गए |